भारत का कम्युनिस्ट आंदोलन और रुसी क्रांति के सबक
'रूसी क्रांति के सौ साल' श्रृंखला की चौथी व अंतिम कड़ी'
डॉ० राम कवीन्द्र
-: प्रकाशक :-
नवजनवादी लोकमंच
प्राक्कथन
रूसी क्रांति के सबक से आम तौर पर समझा जाने लगा है, इसकी पराजय के सबक, जबकि इसकी जीत और हार से जुड़ी एक-एक घटना और उसकी प्रक्रिया में सीखने की अनगिनत संभावनाएं मौजूद हैं। ऐसी धारणा बनने के पीछे एक-एक कर समाजवादी देशों का पतन और पूंजीवादी / निम्नपूंजीवादी विचारकों का दुष्प्रचार सबसे बड़े कारक हैं। वित्तीय पूंजी के इन चाकरों ने इसकी पराजय के बारे में झूठ का इतना गहरा धुंद पैदा किया कि उपलब्धियों का पहाड़ जैसा सच ओझल हो गया। इनके झूठ के दो आधार थे। उन्होंने समाजवाद के भितरघातियों को उसके निष्पादक के रूप में पेश किया और सच्चे नायकों को खलनायक के रूप में। साथ ही, उन्होंने सर्वहारा अधिनायकत्व की वर्गीय अंतर्वस्तु को गायब कर पूंजीवादी जनवाद की श्रेष्ठता साबित करने की कोशिश की।
इस क्रम में मार्क्स-एंगेल्स की शिक्षा को तोड़-मरोड़कर उसे उदारवादी पूंजीवादी विचार के रूप में पेश करने की कोशिश की गयी। वे दोनों विचारक हमेशा कहा करते थे कि सर्वहारा अपनी सत्ता का उपयोग धीरे-धीरे पूंजीपतियों से उत्पादन के साधन छीन लेने में करेगा और आरंभ में यह काम सत्ता के निरंकुश उपयोग के बिना पूरा नहीं होगा। पूंजीपतियों से धीरे-धीरे उत्पादन के साधनों को छीन लेने के लिए सत्ता का निरंकुश उपयोग यही है सर्वहारा का अधिनायकत्व । उनके इस अंश को विलुप्त कर सिर्फ यह प्रचारित किया गया कि सर्वहारा अधिनायकत्व पूंजीवादी जनवाद की सीमाओं को भी लांघ जाता है। यह सर्वहारा अधिनायकत्व की उच्चतर मंजिल का सच है जिसे निचली मंजिल की प्रक्रियाओं को पूरा किये बिना हासिल नहीं किया जा सकता। मार्क्सवाद को उदार पूंजीवाद के स्तर तक गिराने में संशोधनवादी और पूंजीवादी विचारक एक साथ नजर आते हैं।
इस भूमिका का निर्वाह वे त्रिशंकु बनकर नहीं कर रहे थे। उनके झूठ का तात्कालिक आधार था पूंजीवादी कल्याणकारी राज्य जिसे सर्वहारा अधिनायकत्व के दबाव में स्वीकार किया गया था। साम्राज्यवादी बुर्जुवा ने कल्याणकारी राज्य के मुखौटे में अपना आदमखोर चेहरा थोड़ी देर के लिए छुपा लिया था । लेनिन और स्तालिन ने इन बदलावों को चिन्हित भी किया था । स्तालिन ने तो यहां तक कहा था कि बुर्जुवा डर रहा है कि सोवियत संघ के मजदूरों की छूत की बिमारी कहीं उसके देश के मजदूरों को न लग जाय, इसीलिए वह सुधारवादी कदम उठा रहा है। यह एक प्रकार की चेतावनी थी कि उन देशों के मजदूरों को ये सुविधाएं भी तक मिलेंगी, जब तक समाजवाद का भय वहां के पूंजीपतियों के सर पर मंडरा रहा है। उनका आकलन भविष्यवाणी की तरह सच साबित हुआ। जिस दिन सोवियत संघ से समाजवाद का भूत उतर गया (समाजवाद तो 1956-60 के बीच मर गया था) उसी दिन से कल्याणकारी राज्य का मुखौटा चिथड़े- चिथड़े होने लगा और उसके आदमखोर चेहरे पर विषैले खूंखार दांत दिखाई पड़ने लगे, उसी दिन से झूठ के बादल छंटने लगे और सच का सूरज फिर से निकलने लगा।
प्रतिकूल परिस्थिति पैदा होने की सारी जिम्मेवारी वर्ग दुश्मनों और ढुलमुल तत्वों पर डालकर हमलोग दोषमुक्त नहीं हो सकते। दरअसल 1956 में सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी पर संशोधनवादियों (पूंजीवाद के राहियों) का कब्जा हो जाने के बाद विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन में तहस-नहस की स्थिति पैदा हो गयी थी और साम्राज्यवाद को इससे काफी सुकून मिला था। इस प्रभाव को ठीक-ठीक समझने में क्रांतिकारी खेमे ने काफी देर कर दी। इस संदर्भ में लगभग सौ साल पहले (1857-59) इंग्लैंड के मजदूर आंदोलन में आये भटकाव उसके ख्याति प्राप्त नेता अर्नेस्ट जोन्स की पतनशील भूमिका और इसके प्रभाव पर मार्क्स की टिप्पणी गौर करने लायक है। मार्क्स ने इसे मजदूर वर्ग के साथ विश्वासघात घोषित करते हुए जॉसेफ वेडमेयर के नाम पत्र (1 फरवरी 1859) में लिखा कि वह (अर्नेस्ट जॉन्स) बर्बाद हो चुका है, और चार्टिस्ट पार्टी को भारी क्षति पहुंची है। निस्संदेह, गलती सुधार ली जायेगी, लेकिन अनुकूल मौका हाथ से निकल गया है। उस सेना की स्थिति की कल्पना करो जिसका जनरल ऐन युद्ध के मौके पर दुश्मन से हाथ मिला ले। सर्वहारा नेता के इस वर्गद्रोह के फलस्वरूप इंग्लैंड के मजदूर वर्ग को विश्व सर्वहारा क्रांति का अगुआ बनने का जो मौका इतिहास ने दिया था, उसे उसने गंवा दिया।
सोवियत संघ के नेताओं की गद्दारी का प्रभाव इससे कई गुना ज्यादा घातक साबित हुआ। आज तक विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन इस प्रभाव से मुक्त नहीं हो सका है। कार्ल मार्क्स की विलक्षण प्रतिभा का परिचय इस बात से मिलता है कि 1857 में भटकाव शुरू होते ही उन्होंने सर्वहारा वर्ग के प्रतिनिधियों को सचेत करना शुरू कर दिया कि इंग्लैण्ड के मजदूर नेता बुर्जुवा प्रभाव में आ गये हैं और वे अपने देश के पूंजीपति वर्ग के साथ खड़े हैं। लेकिन इस बार का क्रांतिकारी खेमा (चीनी कम्युनिस्टों का) सोवियत संशोधनवाद की परिघटना को काफी देर से समझा, पूरी साफगोई के साथ नहीं समझ सका और उसके भीतर भी पूंजीवाद के राहियों की पैठ इतनी गहरी थी कि दो दशक बीतते-बीतते वह भी संशोधनवाद के सामने दम तोड़ गया।
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द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद साम्राज्यवाद की कार्यपद्धति में आये संक्रमण के दौर में विश्व समाजवादी खेमा भी अक्षुण्ण नहीं रहा था। कमिंटर्न पहले ही भंग हो चुका था, कमिफर्म की स्थापना हुई थी लेकिन वह उतना प्रभावकारी नहीं था, युगोस्लाविया उस खेमे से बाहर निकलकर साम्राज्यवाद का दलाल बन चुका था तथा सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर उठा-पटक चल रहा था। गद्दारों का खेमा सर उठा रहा था, लेकिन सफल नहीं हो पा रहा था। स्तालिन की मृत्यु के बाद पूंजीवाद के राहियों का पलड़ा भारी हुआ, वहां पूंजीवाद की पुनर्स्थापना का दौर शुरू हुआ, ब्रेझनेव के शासनकाल में वह सामाजिक साम्राज्यवाद में तब्दील हो गया और उसके प्रभाव में चीन और अल्बानिया को छोड़कर सारा समाजवादी खेमा ध्वस्त हो गया। इस बीच सोवियत संघ और चीन की कम्युनिस्ट पार्टियों के बीच वर्ष 1963 एक बहस चली जो इतिहास में महान विवाद के रूप में दर्ज है।
इन्हीं परिस्थितियों में भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन में टूट-फूट की प्रक्रिया शुरू हुई। 1964 में पहली टूट हुई और माकपा का जन्म हुआ। फिर माकपा के भीतर से 1967 में नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह का विस्फोट हुआ जिसने 1969 में नयी राजनीतिक पार्टी सीपीआई (एम.एल) को जन्म दिया। 1964 की टूट के विपरीत 1967 के विद्रोह और 1969 में नयी पार्टी की स्थापना ने अंतरराष्ट्रीय महत्व प्राप्त कर लिया। वैचारिक स्रोत बनी चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ।
नये और पुराने उपनिवेशवाद का विवाद नीतिगत बहस के रूप में पहली बार 'महान विवाद' में सामने आया। उसके बाद यह ऑल इंडिया को-ऑर्डिनेशन कमिटी ऑफ कम्युनिस्ट रिवोल्युशनरीज ( एआईसीसीसीआर) के दस्तावेजों में आया। तब यह जरूरी था कि उस दौर के सभी ज्वलंत प्रश्नों के हल ढूंढ़ लिये जाते। उस समय के ज्वलंत प्रश्न थे: स्तालिन पर खुश्चोवी हमले के बाद मार्क्सवाद की संरचना और स्वरूप में क्या बदलाव आया, इसमें स्तालिन के योगदान का मूल्यांकन कैसे होगा ? नव उपनिवेशवाद के दौर में साम्राज्यवाद की कार्यपद्धति में आये बदलावों ने भारतीय समाज को कैसे प्रभावित किया. वर्गीय संबंधों पर इसका क्या प्रभाव पड़ा और क्या इस नये दौर में भी सामंतवाद तथा सामंती नौकरशाही ही साम्राज्यवाद के मुख्य स्तंभ हैं जैसा कि पुराने उपनिवेशवाद के दौर में था ? इन सवालों के सटीक जवाब खोज लेने के बाद ही यह तय हो सकता था कि भारतीय क्रांति की रणनीति व कार्यनीति क्या होगी।
एआईसीसीसीआर के दस्तावेजों में पहले सवाल का जवाब बड़े साफ शब्दों में दिया गया: माओ विचारधारा आज का मार्क्सवाद-लेनिनवाद है। यह सांस्कृतिक क्रांति का दौर था और चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की नौवीं कांग्रेस के निर्णयों की गुंज पूरी दुनिया के क्रांतिकारी खेमे में सुनाई पड़ रही थी। निस्संदेह, यहां भी उसी सूत्र को स्वीकार कर लिया गया था। लेकिन अन्य दो मामलों में स्थिति दुविधाजनक रही। इससे 1925 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना काल के वैचारिक संकट का दृश्य उपस्थित हो रहा था, लेकिन ठीक उसी रूप में नहीं । इन दोनों मामलों को तय करना चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की तात्कालिक अनिवार्यता नहीं थी, लेकिन भारत के कम्युनिस्ट क्रांतिकारी उनकी अनदेखी कर ज्यादा समय तक नहीं चल सकते थे और वही हुआ भी। मतभेद और फूट की शुरूआत तो पार्टी निर्माण के दौर में ही हो चुकी थी, लेकिन पार्टी के भीतर विधिवत टूट की शुरूआत पार्टी की आठवीं कांग्रेस के एक साल बाद हो गयी।
चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की दसवीं कांग्रेस के बाद वैचारिक उलझन और बढ़ गयी जब उस पार्टी ने अपनी नौवीं कांग्रेस के बहुतेरे मूल्यांकन बदल दिये। इस समय तक सांस्कृतिक क्रांति का अंत सर्वहारा और पूंजीपति वर्ग के बीच समझौता के रूप में हो चुका था। नौवीं कांग्रेस में पूंजीवाद के राही के रूप में चिन्हित देंग की दसवीं कांग्रेस में फिर से ताजपोशी हो गयी थी। माओ की मृत्यु के बाद चीन में भी रूस की कहानी दोहरा दी गयी और यहीं से हमारे देश के कम्युनिस्ट क्रांतिकारी आंदोलन में वैचारिक संकट का दौर शुरू हो गया जिसकी अभिव्यक्ति टूट-फूट में हो रही है। चाहे जो हो, यह आंदोलन भी वांछित परिणाम दिये बगैर बिखर गया। यह आंदोलन के लिए बहुत बड़ा झटका साबित हुआ जिससे हम अभी तक उबर नहीं सके हैं।
इस स्थिति तक पहुंचाने में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी में पूंजीवाद के राहियों की जीत और वहां पूंजीवाद की पुनर्स्थापना ने अहम भूमिका निभायी। जिस तरह रूसी क्रांति की जीत के बाद बनी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी वहां पूंजीवाद की पुनर्स्थापना के बाद संशोधनवादी बन गयी। उसी तरह चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के प्रभाव में बनी सीपीआई (एम.एल.) भी टुकड़ों में बंटते जाने के बावजूद भारतीय क्रांति की सही राह नहीं खोज पायी। अब तो लगता है, भटकाव ने स्थायी रूप धारण कर लिया है। इस स्थिति को बदलने के लिए रूसी क्रांति के अनुभव के आलोक में खामियों और गलतियों के विश्लेषण की कोशिश ही हमारा उद्देश्य है।
III
1980 में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के संशोधनवादी हो जाने के बाद विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन में संशोधनवाद के खिलाफ संघर्ष की नीति ने दम तोड़ दिया और साम्राज्यवाद से मुकम्मल मेल-मिलाप की जमीन तैयार होने लगी। इस दौर में ऐसी छवि उभरी कि साम्राज्यवाद अपराजेय है और समाजवाद क्षणभंगुर । लेकिन 1991 के बाद (खासकर इक्कीसवीं सदी में) साम्राज्यवाद के चौतरफा संकट उभरने से यह समझ में आने लगा है कि उसकी संरचना दुर्योधन की काया की तरह है, जिसका सारा शरीर भले ही वज्र बन गया हो, लेकिन कमर कच्ची है, वह भीम का एक प्रहार भी नहीं झेल सकता। लेकिन साम्राज्यवाद चाहे जितना खोखला हो, दुनिया का मजदूर वर्ग भीमकाय नहीं बना है, वह साम्राज्यवाद पर निर्णायक प्रहार की स्थिति में नहीं है। इस स्थिति में आज का सबसे जरूरी कार्यभार है कि मार्क्सवाद-लेनिनवाद को आज की ठोस परिस्थिति की जरूरतों के अनुसार विकसित कर उसे जनमानस में पिरो दिया जाय ।
इस अर्थ में रूसी क्रांति की जय और पराजय दोनों के सबक अत्यंत प्रासंगिक हैं। संकट के इस मोड़ पर रूसी क्रांति के सौ वर्षों के इतिहास का सबसे बड़ा सबक यह समझना है कि किसी भी देश में कम्युनिस्ट पार्टी के निर्माण की भौतिक परिस्थितियां कैसी होती हैं और उसमें काम करने का मार्क्सवादी तरीका क्या हो सकता है। खासकर वैसे समाज में जहां इस दिशा में प्रयास हुआ हो और सारी संरचना पूंजीवाद की सेवा में लग गयी हो या बिखर गयी हो।
मार्क्सवाद सामाजिक विकास का वैज्ञानिक सिद्धांत है और ठोस परिस्थिति का ठोस विश्लेषण उसकी आत्मा है। यह सर्वमान्य तथ्य है। लेकिन विरले लोग ही इसका सही उपयोग कर पाते हैं और यही कारण है कि विरले लोग ही क्रांति को जीत की मंजिल तक पहुंचाने में सफल हो पाते हैं या क्रांतिकारियों को समझाने में सफल हो पाते हैं कि तत्कालीन परिस्थिति में समाज का शक्ति संतुलन क्रांति के अनुकूल नहीं है और उसमें मजदूर वर्ग को अपनी भूमिका का निर्धारण कैसे करना चाहिए। ऐसा कर वे समाज के गर्भ में पल रही क्रांति के भ्रूण को बाहरी खतरों से बचाते हैं और उसे सुरक्षित ढंग से भावी पीढ़ी के हाथों में सुपुर्द कर अपने क्रांतिकारी दायित्व का निर्वाह करते हैं। विश्व सर्वहारा के प्रथम सिद्धांतकार मार्क्स-एंगेल्स ऐसे ही विचारक थे। उनके नेतृत्व में किसी देश में सर्वहारा क्रांति विजयी नहीं हुई, लेकिन उनके सैद्धांतिक प्रभाव के बिना एक भी क्रांति संपन्न नहीं हुई। उनके इसी योगदान ने दोनों को युगों-युगों तक जिंदा रहने का आधार तैयार कर दिया है।
“ठोस परिस्थिति का ठोस विश्लेषण कर रक्षात्मक नीति का नमूना हम एंगेल्स के नाम मार्क्स के पत्र (8 अक्तूबर 1858) में देखते हैं। इन दोनों के कार्यकाल में पूंजीवादी विकास और सर्वहारा क्रांति का केंद्र यूरोप था जिससे पूंजीपति वर्ग
भयभीत था । यह वस्तुगत परिस्थिति का एक पक्ष था। लेकिन दूसरी तरफ दुनिया के विशाल भूखंड में पूंजीवादी संबंधों का विस्तार हो रहा था और वह उसे जीवन दान दे रहा था। इस जीवनदायी स्रोत का उल्लेख करते हुए मार्क्स लिखते हैं:
वे 'विश्व बाजार की स्थापना, कम से कम बाहरी स्वरूप के तौर पर और उस पर आधारित उत्पादन पूंजीवादी समाज का विशिष्ट कार्यभार है। कैलिफोर्निया और आस्ट्रेलिया के औपनिवेशिकरण, तथा चीन और जापान के (बाजार) खुल जाने से यह काम पूरा हो गया लगता है।' इस प्रक्रिया के परिणाम पर नजर डालते हुए आगे लिखते हैं: 'हमारे लिए कठिन प्रश्न यह है : इस उपमहाद्वीप में क्रांति तुरंत संभव है और वह शीघ्र ही समाजवादी चरित्र अख्तियार कर लेगी। इस बात पर ध्यान देने से कि दुनिया के बड़े भू-भाग में पूंजीवादी समाज की गति उत्थान की ओर है, छोटे से कोने में क्रांति का कुचल दिया जाना क्या निश्चित नहीं है ?"
बीसवीं सदी आते-आते परिस्थिति बदल गयी। औपनिवेशिकरण की प्रक्रिया पूरी हो गयी और यूरोप क्रांति के केंद्र से अवसरवाद के गढ़ में तब्दील हो गया । मार्क्स ने यूरोप में क्रांति के विस्फोट की जिस संभावना का जिक्र किया था, यूरोप का सर्वहारा उस अवसर को गंवा चुका था। साथ ही दूसरा बदलाव यह आया कि उपनिवेशों के नये सिरे से बंटवारे के लिए साम्राज्यवादी शक्तियों के बीच विश्वयुद्ध अनिवार्य हो गया। इन बदलावों का ठोस विश्लेषण करते हुए लेनिन ने निष्कर्ष निकाला कि अकेला एक देश में भी क्रांति विजयी हो सकती है और वह उसी देश में विजयी होगी जो साम्राज्यवाद की सबसे कमजोर कड़ी साबित होगा। यह साम्राज्यवाद और सर्वहारा क्रांति के युग का निष्कर्ष था, जो मार्क्स के निष्कर्ष से सर्वथा भिन्न था।
मार्क्सवादी पद्धति का उपयोग कर दो भिन्न परिस्थितियों से निकले इन दोनों निष्कर्षों की सीख के आलोक में हम विचार करें कि हम कहां खड़े हैं ? खासकर भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन के संदर्भ में इस सवाल का जवाब भविष्य के आंदोलन की दिशा तय करने के लिहाज से बहुत प्रासंगिक है। साथ ही नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह के पचासवें साल में भी यह उतना ही महत्वपूर्ण है। क्रांतिकारी आंदोलन का अत्यंत दुखद व चिंताजनक पक्ष यह है कि नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह के गर्भ से उत्पन्न पार्टी कई टुकड़ों में बंटी हुई है, उनमें एकता की संभावना क्षीण हो गयी है और यह तब हो रहा है जब एकतावादियों की भरमार है। एकता और टूट का लंबा अनुभव यह साबित करता है कि अवसरवाद फूट का सबसे बड़ा कारण है।
क्रांतिकारी आंदोलन में टूट-फूट और प्रतिक्रियावादियों के आक्रामक तेवर का हवाला देकर एक बार फिर यह समझाने की कोशिश हो रही है कि सभी रंग-ढंग के कम्युनिस्ट नामधारी संगठनों को किसी न किसी स्तर पर एकजुट हो जाना चाहिए। इस तरह के अपीलकर्ता चाहें या न चाहें, लेकिन उनकी अपील का संदेश जाता है मानों प्रतिक्रियावाद की विजय इस टूट-फूट के कारण हो गयी। यह नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह के राजनीतिक औचित्य पर प्रश्नचिह्न खड़ा कर देता है। लेकिन वे इससे बेपरवाह हैं।
नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह के ऐतिहासिक महत्व को टुकड़ों में देखने की आदत पड़ गयी है। एक धारा हथियारबंद संघर्ष को इसका केंद्रीय योगदान मानती है तो दूसरी धारा भूमि संघर्ष को । इस बीच एक नयी प्रवृति चल पड़ी है, वर्ग संघर्ष को पृष्ठभूमि में धकेलकर पहचानों के संघर्ष को अहमियत देने की। इन सबमें एक समानता है कि वे नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह से निकली संशोधनवाद विरोधी आवाज को अहमियत नहीं दे पाते ।
इस समझ के दबाव में सीपीआई (एम.एल.) के कई ग्रुपों ने यह नीति स्वीकार कर ली कि अगर वर्ग संघर्ष पृष्ठभूमि से चला गया हो, तो जातीय संघर्ष प्रमुख बन जाता है। साथ ही यह कहा जाने लगा कि जाति ही वर्ग है और जाति संघर्ष को वर्ग संघर्ष का पर्याय मानना फैशन जैसा हो गया। यह वर्ग संघर्ष से इनकार कर मजदूर वर्ग को पूंजीपति वर्ग के सामने निहत्था करने जैसा है। इस परिघटना ने एक तरफ मार्क्स के विश्लेषण को सही साबित किया, तो दूसरी तरफ बीसवीं सदी में कम्युनिस्ट (उस समय सामाजिक जनवादी) आंदोलन में व्याप्त अवसरवाद और साम्राज्यवाद के अंतर्संबंध पर लेनिन की थीसिस की पुष्टि कर दी कि साम्राज्यवाद और मजदूर वर्ग की राजनीति में व्याप्त अवसरवाद एक दूसरे से जुड़े होते हैं।
यह है वैचारिक-राजनैतिक दलदल जिसमें क्रांतिकारी फंस गये हैं । यह कैसे हुआ और इससे बाहर निकलने का रास्ता क्या है ? इन सवालों का जवाब खोजकर ही रूसी क्रांति की जय-पराजय से सबक सीखने का दावा किया जा सकता है। रूसी क्रांति के सौ साल के विश्लेषण के माध्यम से हमने आज के ऐसे ही सवालों के जवाब खोजने की कोशिश की है।
--डॉ० राम कवीन्द्र
आभार
'रूसी क्रांति के सौ साल' श्रृंखला की अंतिम कड़ी के रूप में इस पुस्तिका के प्रकाशन में मेरी निजी परेशानियों के कारण थोड़ा विलम्ब हुआ। पहली से लेकर तीसरी कड़ी तक के प्रकाशन और वितरण का राजनीतिक अनुभव अत्यंत उत्साहवर्द्धक रहा है। जिस समय हमलोग इसके प्रकाशन का निर्णय ले रहे थे, इस काम के हर पड़ाव (लेखन, प्रकाशन, वितरण आदि) को लेकर कई तरह की आशंकाएँ मन में उठ रही थीं। लेकिन इन तीन वर्षों में हमारे संगठन तथा सीपीआई (एम.एल.) धारा के अन्य कई ग्रुपों के नेताओं और कार्यकर्त्ताओं की ओर से अप्रत्याशित सहयोग व समर्थन मिला। हमारे संगठन के जो साथी इस निर्णय में शरीक थे, उनकी भूमिका प्रशंसनीय तो है, लेकिन आश्चर्यजनक नहीं। अन्य साथियों का सहयोग निश्चय ही प्रशंसनीय भी है और काफी उत्साहवर्धक भी। हम इन सब के प्रति हार्दिक आभार प्रकट करते हैं।
कुछ ऐसे साथी हैं जिनकी भूमिका अत्यंत उल्लेखनीय रही है। अर्जुन प्रसाद सिंह (दिल्ली) तथा अरूणांशु बनर्जी (रांची) ने प्रकाशन के पूर्व रचनाओं में अपना अमूल्य सुझाव देकर हमें कृतार्थ किया है। अर्जुन प्रसाद सिंह ने तो पहले भाग की भूमिका में जिस तरह से उत्साह बढ़ाया उसके लिए हम विशेष रूप से उनके आभारी हैं। उसी तरह सियाशरण शर्मा ( जमशेदपुर ) का योगदान भी अत्यंत उल्लेखनीय है। उन्हीं के प्रयास का नतीजा है कि अब तक तीन भागों का बंगला अनुवाद फेसबुक में जारी हो चुका है। इन तीनों साथियों के प्रति विशेष आभार । अन्त में, हम तकनीकी सहयोग के लिए इन सभी भागों के कम्पोजिटर और प्रिंटर के प्रति भी आभार प्रकट करते हैं जिनके सहयोग के बिना यह श्रृंखला पाठकों के हाथ में नहीं पहुंच पाती। सर्वोपरि हम पाठकों के प्रति आभारी हैं, क्योंकि उनके उत्साहवर्धन के बिना एक कदम बढ़ना भी मुश्किल था । आशा है, आगे भी सबका सहयोग मिलता रहेगा और इस माध्यम से एकजुटता की दिशा में हम आगे बढ़ते रहेंगे।
लेखक
अध्याय-1
भारत में कम्युनिस्ट पार्टी के निर्माण की भौतिक परिस्थितियां
किसी भी देश में कम्युनिस्ट पार्टी के निर्माण के लिए तीन तत्वों की जरूरत पड़ती है : औद्योगिक मजदूरों का विकास, मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धांतों का प्रचार-प्रसार तथा सर्वहारा के (राजनीतिक शक्ति के रूप में) उदय के पूर्व के क्रांतिकारी संघर्ष की विरासत यानी पूंजीपति वर्ग के संघर्ष की विरासत । ये तीनों कारक किसी देश में जितने समृद्ध होते हैं और उनके बीच क्रांतिकारी समन्वय जितना सटीक होता है, उस देश की कम्युनिस्ट पार्टी उतनी ही मजबूत होती है। इन तत्वों के आपसी संबंध की स्पष्ट समझ हासिल करना और उसे निरंतर अद्यतन बनाते रहना हर दौर के मार्क्सवादी विचारक का कर्तव्य होता है। उपर्युक्त बातों का पहला बिंदु बिल्कुल स्पष्ट है। स्वयं सिद्ध की तरह । इसलिए इसकी व्याख्या में ऊर्जा खर्च करने की जरूरत नहीं है। लेकिन मामले को गहराई से समझने के लिए अन्य दोनों के महत्व और अंततः तीनों के आपसी संबंधों की व्याख्या जरूरी है।
पहले हम इस पक्ष पर विचार करें कि मजदूरों के बीच मार्क्सवादी चिंतन (वह भी अद्यतन विकसित मार्क्सवाद) का प्रचार-प्रसार क्यों जरूरी है और कितना जरूरी है। यह परिचर्चा हमारे आंदोलन के लिए नयी बात नहीं है, वह किसी न किसी रूप में हमेशा बरकरार रही है। मजदूर वर्ग के आदि विचारक कार्ल मार्क्स और प्रोडरिक एंगेल्स ने 'कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र' में बेबाकी के साथ एलान कर दिया था कि कम्युनिस्ट पार्टी मजदूर वर्ग की पार्टी होती है और मजदूरों को वर्ग के रूप में संगठित करने तथा सत्ता तक पहुंचाने के क्रम में सैद्धांतिक ज्ञान से लैस कर संघर्ष के मैदान में उतारना जरूरी होता है।
मजदूर वर्ग की राजनीतिक कमान इन दोनों विचारकों के हाथ में आने के पहले अंतर्राष्ट्रीय मजदूर संगठन का नारा हुआ करता था भाई-भाई हैं। लेकिन इस बात का श्रेय इन लोगों को जाता है कि 'घोषणापत्र' में 'सभी मनुष्य उद्घोष हुआ, 'दुनिया के मजदूरों एक हो।' यह मजदूर वर्ग की विचारधारा के क्षेत्र में बहुत बड़ा बदलाव था, वैचारिक क्रांति का विस्फोट था । जीवनपर्यंत ये दानों विचारक इस प्रस्थापना पर डटे रहे कि क्रांतिकारी सिद्धांत और व्यवहार एक दूसरे से अभिन्न रूप से जुड़े हैं, एक दूसरे के पूरक हैं जिन्हें अलग नहीं किया जा सकता। दूसरी ओर निम्नपूंजीवादी विचारकों की टोली उनके खिलाफ भिड़ी रही और इनके प्रभाव में मजदूर आबादी का बड़ा हिस्सा क्रांति के नाम पर आतंकवाद या अराजकतावाद का बंदी बना रहा।
इन दोनों विचारकों ने 'घोषणापत्र' में सिद्धांत और व्यवहार के द्वंद्वात्मक संबंध को दो प्रश्नों के इर्द-गिर्द निरूपित कर दिया। उनका पहला स्पष्टीकरण था कि कम्युनिस्ट पार्टी दूसरी मजदूर पार्टियों से किस लिहाज से अलग होती है और दूसरा यह कि कम्युनिस्ट (कार्यकर्त्ता) अन्य दलों (के कार्यकर्त्ताओं) से किस मायने में श्रेष्ठ होते हैं ? पहले बिंदु पर वे कहते हैं : 'विभिन्न देशों के सर्वहाराओं के राष्ट्रीय संघर्ष में वे (कम्युनिस्ट) राष्ट्रीयता से सर्वथा निरपेक्षतः समस्त सर्वहारा के सामान्य हितों को इंगित करते और सामने लाते हैं।' मार्क्स-एंगेल्स के इस विचार को हम 'दुनिया के मजदूरों एक हो या सर्वहारा अंतर्राष्ट्रीयतावाद का प्रस्थान बिंदु मान सकते हैं। इसी सिलसिले में वे कम्युनिस्टों का दूसरा पक्ष उजागर करते हैं : 'बुर्जुवा वर्ग के खिलाफ मजदूर वर्ग के संघर्ष को जिन मंजिलों से होकर गुजरना होता है, उनमें वे हमेशा और हर कहीं समूचे तौर पर आंदोलन के हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं।' यहां उनका संकेत बिल्कुल साफ है कि कम्युनिस्टों को दीर्घकालिक लक्ष्यों को पाने के लिए जरूरत पड़ने पर तात्कालिक उपलब्धियों का त्याग भी करने की हिम्मत दिखानी चाहिए। जीवनपर्यंत वे दोनों अपने इस राजनीतिक मूल्य पर टिके रहे।
कम्युनिस्टों की श्रेष्ठता के आधार की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा था 'कम्युनिस्ट, एक ओर, व्यवहार में हर देश की मजदूर पार्टियों के सबसे आगे बढ़े हुए जुज होते हैं, ऐसा जुज, जो और सभी को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है, दूसरी ओर सैद्धांतिक दृष्टि से उन्हें सर्वहारा के विशाल जनसमुदाय पर सर्वहारा आंदोलन के आगे बढ़ने के रास्ते, उसकी अवस्थाओं और उसके अंतिम सामान्य परिणामों की सुस्पष्ट समझ रखने की श्रेष्ठता प्राप्त है। यह उद्धरण कितनी सफाई के साथ समझा देता है कि क्रांतिकारी संघर्ष के दिशा निर्धारण के लिए क्रांतिकारी सिद्धांत की समझ निहायत जरूरी है।
मार्क्स-एंगेल्स के इस सूत्र को आत्मसात करना हमारे देश (वस्तुतः पूरे विश्व ) के कम्युनिस्ट आंदोलन की सबसे बड़ी जरूरत है। इन दोनों विचारकों के समकालीन लोग, यहां तक कि जर्मन सामाजिक जनवादी मजदूर पार्टी के बड़े-बड़े नेता भी इस संबंध को जीवंत रूप में आत्मसात नहीं कर पा रहे थे और उनके दिशा निर्देशों की अवहेलना कर देते थे या कहें, समझ के अभाव में उनसे हो जाती थी। वे तात्कालिक लाभ के लालच में दीर्घकालिक लक्ष्य को ओझल कर देते थे, कभी-कभी तो क्षति भी पहुंचा देते थे। यह परिस्थिति इसलिए भी पैदा हुई कि पेरिस कम्यून की पराजय तथा प्रथम इंटरनेशनल के भंग होने के बाद निम्नपूंजीवादी विचारधारा पर मार्क्सवाद की जीत हो गयी थी, लेकिन इन विचारों के अवशेष के साथ कई लोगों ने मार्क्सवादी खेमे में शरण ले ली और बाद में यहां वे संशोधनवाद के वाहक बन गये। इस धारा के पहले प्रतिनिधि एडुअर्ड बर्न्सटीन थे।
रूसी सामाजिक जनवादी पार्टी के इतिहास में अर्थवादियों से वैचारिक संघर्ष चलाते हुए लेनिन ने 'क्या करें' में एंगेल्स की अत्यंत महत्वपूर्ण उक्ति उद्धृत की थी : क्रांतिकारी सिद्धांत के बिना कोई क्रांति संभव नहीं है। इस सिद्धांत को निरंतर विकसित करने की जरूरत पर बल देते हुए वे कहा करते थे कि क्रांति का नेतृत्व वही पार्टी कर सकती है जो सबसे उन्नत सिद्धांतों से निर्देशित होती है। मार्क्स-एंगेल्स की तरह लेनिन भी सिद्धांत और व्यवहार के बीच द्वंद्वात्मक संबंध के कायल थे। उनकी समझ की अभिव्यक्ति इस बात में होती है कि मजदूर वर्ग की राजनीतिक पार्टी के संगठन का स्वरूप क्या हो तथा पार्टी की सदस्यता के मापदंड क्या तय हों ? यह विवाद रूसी सामाजिक जनवादी मजदूर पार्टी में संशोधनवाद बनाम मार्क्सवाद के निर्धारण का एक आधार भी बना ।
मेंशेविक इस विचार के प्रतिनिधि बनकर उभरे किं मार्क्सवाद से सहमति जतानेवाला हर बुद्धिजीवी तथा मजदूरों की हड़ताल के समर्थन में खड़ा हर बुद्धिजीवी कार्यकर्त्ता पार्टी का सदस्य बन सकता है। इसमें ऐसी कोई नीति नहीं है। जिससे यह स्पष्ट हो सके कि मार्क्सवाद का सूत्र जपनेवाला बुद्धिजीवी राजनीतिक व्यवहार में खरा उतरता है या नहीं और हड़ताल के समर्थन में खड़ा कार्यकर्त्ता मार्क्सवाद पर अमल करता है या नहीं।
इन सवालों का जवाब बोल्शेविकों की नीति में मिलता है। उनका मानना था कि रूसी सामाजिक जनवादी पार्टी का सदस्य बनने के लिए तीन शर्तें पूरी होनी चाहिए: मार्क्सवाद में विश्वास रखना, पार्टी के किसी जनसंगठन में तथा उसके अनुशासन में सक्रिय रहना तथा अपनी आमदनी के अनुसार एक निर्धारित राशि पार्टी कोष में नियमित देना पार्टी में अनुशासन के नियम जनवादी भी थे और केंद्रीयता के साथ उनमें कठोरता भी थी। इस प्रकार मार्क्सवादी सिद्धांत के आधार पर व्यवहार करते हुए बोल्शेविक लेनिन के नेतृत्व में क्रांति का प्रतीक बनकर उभरे।
रूस में पार्टी निर्माण के दौर में अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक 'क्या करें' में लेनिन ने आतंकवाद, अर्थवाद और मार्क्सवाद के बीच अंतर तथा ट्रेड यूनियन और पार्टी संगठन के अंतसंबंध पर गहराई के साथ प्रकाश डाला था। हमारे देश के कम्युनिस्ट आंदोलन में इस पुस्तक को गहराई के साथ समझकर व्यवहार में उतारने की कोशिश नहीं हुई या कभी-कभार हुई भी तो अत्यंत अधूरे ढंग से। इसके फलस्वरूप ट्रेड यूनियन व किसान संगठन तथा पार्टी के बीच जीवंत क्रांतिकारी संबंध कायम नहीं हो सका। इसलिए इस पुस्तक की उपयोगिता आज हमारे लिए अतीत के किसी भी समय से ज्यादा बढ़ गयी है। यह है मजदूर जनता के बीच मार्क्सवादी दर्शन के प्रचार-प्रसार के महत्व का एक पक्ष ।
पूंजीवादी और निम्नपूंजीवादी विचारक अगर यह नहीं समझ पाते तो बात समझ में आती है और हमारे आंदोलन के लिए कोई गंभीर खतरा नहीं है, लेकिन मार्क्सवादी नहीं समझ पाते तो वे आंदोलन में भितरघात के शाश्वत स्रोत बन जाते हैं। कार्यकर्त्ताओं की पिछड़ी चेतना इसका मुख्य स्रोत होती है। चीनी क्रांति के मुख्य शिल्पी माओत्से तुंग कहा करते थे कि कई लोग कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य तो बन जाते हैं, अनुशासन के नाम पर नेतृत्व के निर्णयों को लागू करते हैं, अच्छे व विश्वसनीय कैडर का खिताब भी पा लेते हैं लेकिन मार्क्सवाद समझ नहीं पाते। वे मूलतः उस पुरानी चेतना से जकड़े रहते हैं जो उन्हें शासक वर्ग से तथा समाज की पुरातन चिंतन परंपरा से विरासत में मिली होती है। ऐसे लोग ख्याति अर्जित कर लेने के बावजूद पार्टी के भीतर निम्नपूंजीवाद के प्रतिनिधि बने रहते हैं और भविष्य में गलती से गद्दारी कर पार्टी को रसातल में पहुंचाने का साधन बन जाते हैं। क्रांति का सफल नेतृत्व करनेवाली रूस और चीन की कम्युनिस्ट पार्टियां भी इस प्रक्रिया से नहीं बच पायी थीं। रूस की पार्टी में बार-बार किया जाने वाला बड़े पैमाने पर निष्कासन तथा चीन की सांस्कृतिक क्रांति ऐसे ही तत्वों से मुक्त होने के उपाय थे।
अब हम इसके दूसरे पक्ष मजदूरों के राजनीतिकरण की ऐतिहासिक प्रक्रिया पर विचार करें। इस दौरान हम कम्युनिस्ट पार्टी को अतीत से मिली विरासत का महत्व समझ पायेंगे। इसकी शुरूआत हम फिर 'घोषणा पत्र' में मार्क्स-एंगेल्स की व्याख्या से करेंगे। इन दोनों विचारकों ने बड़े साफ शब्दों में कहा था कि औद्योगिक मजदूर पूंजीवाद की संतान हैं, ऐसी संतान जो उसकी मौत का कारण बनती है। इस आधार पर आसानी से समझा जा सकता है कि हर देश के मजदूर पर उसके पूंजीवादी संबंधों का प्रभाव जन्मजात रूप से पड़ता है। इस संबंध को प्रभावित करनेवाला दूसरा कारक होता है औद्योगिक मजदूर बनने के पहले उस व्यक्ति की वर्गीय स्थिति पूंजीवाद के दौर में उत्पादन के विशिष्ट साधन पैदा हो जाने के कारण विशिष्ट कौशल का कोई मूल्य नहीं रह जाता, मजदूर आबादी के सभी हिस्सों से भरती किये जाने लगते हैं और निश्चय ही वे अपने पूर्व वर्ग चरित्र के साथ नयी जमात में शामिल होते हैं। इस जन्मजात प्रक्रिया को समझने के बाद संघर्ष के मैदान में इस प्रभाव को देखने समझने की कोशिश की जाय। जिस तरह मजदूर पूंजीवादी उत्पादन संबंध की उपज होते हैं, उसी तरह राजनीतिक संघर्ष की पहली घंटी भी वे पूंजीपति वर्ग के लिए लड़कर ही पीते हैं। इस संघर्ष के महत्व को उजागर करते हुए मार्क्स-एंगेल्स 'घोषणापत्र' में लिखते हैं:
'इस मंजिल में सर्वहारा अपने शत्रुओं (पूंजीपतियों) से नहीं, बल्कि अपने शत्रुओं के शत्रुओं से निरंकुश राजतंत्र के अवशेषों, भूस्वामियों, गैर औद्योगिक बुर्जुवाओं, निम्नबुर्जुवाओं से लड़ता है। इस प्रकार समस्त ऐतिहासिक गतिविधि बुर्जुवा वर्ग के हाथों में संक्रेंद्रित रहती है, इस प्रकार हासिल की गयी हर जीत बुर्जुवा वर्ग की जीत होती है। इस पूरी मंजिल में मजदूर सिर्फ पूंजीपति वर्ग के सिपाही की भूमिका निभाते हैं और इससे गुजरे बगैर वे अगली मंजिल में प्रवेश कर ही नहीं सकते। मार्क्स-एंगेल्स इससे भी आगे बढ़ते हैं:
'पुराने समाज के विभिन्न वर्गों के बीच टकराव कुल मिलाकर सर्वहारा के विकास की प्रक्रिया को अनेक रूपों में बढ़ावा ही देते हैं। बुर्जुवा वर्ग अपने को लगातार लड़ाई में फंसा पाता है। पहले अभिजात वर्ग के विरूद्ध, बाद में स्वयं बुर्जुआ वर्ग के उन अंशकों के विरूद्ध जिनके हित उद्योग की प्रगति के प्रतिकूल हो जाते हैं और विदेशों के बुर्जुवा वर्ग के विरूद्ध तो निरंतर । इन तमाम लड़ाइयों में वह अपने को सर्वहारा की तरफ मुड़ने, उससे मदद मांगने और इस प्रकार उसे राजनीतिक रंगमंच में खींचने के लिए मजबूर पाता है। अतः बुर्जुआ वर्ग स्वयं ही सर्वहारा को सामान्य तथा राजनीतिक शिक्षा के अपने तत्व प्रदान करता है, अर्थात सर्वहारा को बुर्जुवा वर्ग से लड़ने के हथियार मुहैय्या करता है।'
इस संघर्ष में पूंजीपति वर्ग मजदूरों को पूंजीवादी राजनीति की शिक्षा ही दे सकता है। यही कारण है कि मजदूर नैसर्गिक रूप से निम्नपूंजीवादी प्रकृतियों की ओर आकृष्ट होते हैं और सर्वहारा की शिक्षा-दीक्षा के लिए उन्हें सचेतन प्रयास करना पड़ता है। इसी से पैदा होता है मजदूर वर्ग के भीतर सैद्धांतिक काम का महत्व |
जब पूंजीवादी व्यवस्था का आंतरिक संकट शुरू होता है और उसके फलस्वरूप मजदूरों का संकट भी शुरू हो जाता है तब उनका अपना संगठन (ट्रेड यूनियन) अस्तित्व में आता है जो पूंजीपति वर्ग से टकराने का पहला हथियार होता है। लेकिन यह संघर्ष भी पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ नहीं जाता, उसके झंडे पर पूंजीवाद का नाश नहीं लिखा रहता। उल्टे, इस व्यवस्था के अंदर ही वह अपने अस्तित्व की बेहतर शर्तों के लिए संघर्ष करता है। इसी संघर्ष के क्रम में उसके भीतर वर्गीय एकता और पूंजीपति वर्ग के विरुद्ध राजनीतिक संघर्ष के तत्व पैदा होते हैं। इसके साथ ही समाज में क्रांतिकारी बुद्धिजीवियों का समूह भी पैदा होता है जो उन तत्वों को तार्किक परिणति तक पहुंचाता है।
इस विकास क्रम में कई बार ऐसी परिस्थितियां भी पैदा होती हैं जब क्रांतिकारी बुद्धिजीवी विचारधारा की खोज में लगे रहते हैं और मजदूर उससे बेगाना रहते हैं। यह सामान्यतया इतिहास का संक्रमण काल होता है। पूंजीपति और सर्वहारा के संघर्ष में 1860-1900 की अवधि ऐसा ही संक्रमण काल थी। औद्योगिक पूंजीवाद से वित्तीय पूंजीवाद में संक्रमण काल। आज एक बार फिर हम ऐसे ही संक्रमण काल से गुजर रहे हैं और आंदोलन में व्याप्त दुविधा और टूट-फूट संक्रमण की प्रक्रिया पर विचारकों में व्याप्त मतभेद का प्रतिफल है।
ऊपर हमने औद्योगिक मजदूरों की उत्पत्ति और उनकी राजनीतिक शिक्षा-दीक्षा की जिस प्रक्रिया का जिक्र किया है, उसके हर मोड़ पर मजदूर पूंजीवादी रीति-नीति से प्रभावित होते हैं और इन प्रभावों को नष्ट करने के लिए कम्युनिस्ट पार्टी में मार्क्सवादी शिक्षा-दीक्षा का निरंतर प्रयास होते रहना चाहिए। जिस दिन यह प्रक्रिया रूक जाती है या मार्क्सवाद के नाम पर सड़े-गले बासी विचार परोसे जाने लगते हैं, उसी दिन से पार्टी की मौत की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। कम्युनिस्ट पार्टी के निर्माण और विकास के लिए तीन अनिवार्य तत्वों के इस विश्लेषण के बाद अब हम भारत की ठोस परिस्थिति और उसमें पूंजीवादी पार्टी व कम्युनिस्ट पार्टी के निर्माण व विकास की अवस्थाओं की चर्चा करें।
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इतिहास के इस कुरूप सच को हम नहीं झुठला सकते कि भारत में पूंजीवादी विकास ब्रिटिश साम्राज्यवाद की देख-रेख में और उसकी जरूरत के अनुसार हुआ । इसकी छाप इस देश के पूंजीवादी विकास की हर मंजिल पर देखी जा सकती है। कार्ल मार्क्स ने इस प्रभाव की तस्वीर इन शब्दों में पेश की (ब्रिटिश) अभिजात वर्ग भारत को जीतना चाहता था, थैलीशाह उसे लूटना चाहते थे और उद्योगपति अपने सस्ते माल से उसके बाजारों को पाट देना चाहते थे। पर अब स्थिति एकदम उलट गयी है। उद्योगपतियों को अब पता चल गया है कि भारत को उत्पादक देश में परिवर्तित करना उनके लिए आवश्यक है' (भारत में ब्रिटिश राज के भावी परिणाम ) ।
इस सोच के तहत भारत का औद्योगिकरण शुरू हुआ कि इसका लाभ मुख्यतः ब्रिटिश पूंजीवाद को मिलता रहेगा। जो भारत पहले उसका कृषि उपनिवेश था और उसका बाजार ब्रिटिश उद्योगों में तैयार उपभोक्ता सामग्रियों से पटा रहता था, अब औद्योगिक उपनिवेश रहेगा और वहां मशीनों का निर्यात कर अंग्रेज पूंजीपति मालामाल होते रहेंगे। फिर भी, मार्क्स को उम्मीद थी कि विकास की यह दिशा और गति भारत की मुक्ति का मजबूत आधार तैयार करेगी। इसके लिए उन्होंने दो शर्तें रखी थीं- ब्रिटेन में औद्योगिक सर्वहारा शासक वर्ग बन जाय या भारत के लोग अंग्रेजों के जुए को पूरी तरह उतार फेंक कर उत्पादक शक्तियों पर अपना नियंत्रण कायम कर लें। इन में कोई मुकम्मल ढंग से शर्त पूरी नहीं हुई। भारत साम्राज्यवाद के जुए को आंशिक रूप से ही उतार सका।
मार्क्स जिस समय इस प्रभाव का विश्लेषण कर रहे थे, वह औद्योगिक पूंजीवाद का वर्चस्व काल था । लेकिन तुरंत बाद साम्राज्यवाद के आर्थिक आधार में बदलाव की प्रक्रिया शुरू होने वाली थी। औद्योगिक पूंजी की जगह वित्तीय पूंजी के वर्चस्व की मंजिल में संक्रमण का दौर शुरू होनेवाला था। इस दौर में वित्तीय पूंजी की गति के नियम के आधार पर साम्राज्यवादी देशों के मजदूरों में व्याप्त अवसरवाद और उपनिवेशों / अर्द्धउपनिवेशों पर क्रांतिकारी प्रभाव की व्याख्या लेनिन ने की और इस तरह मार्क्सवाद में नया अध्याय जोड़कर उसे मुकम्मल बनाया। इस विकास यात्रा में उन्होंने इन देशों के नवोदित पूंजीपतियों के चरित्र की व्याख्या की जो मार्क्स की व्याख्या से भिन्न थी ।
हम देख चुके हैं कि 'घोषणापत्र' में पूंजीपति वर्ग के बारे में कहा गया है कि वह 'विदेशों के पूंजीपतियों के विरूद्ध तो निरंतर संघर्ष की स्थिति में रहता है। लेकिन उत्पीड़ित देशों के पूंजीपतियों के बारे में लेनिन का कहना था कि 'उत्पीड़ित देशों का पूंजीपति वर्ग राष्ट्रीय आंदोलन का समर्थन करता है और साथ ही प्रायः यहां तक कि अधिकांश मामलों में, साम्राज्यवादी पूंजीपति वर्ग का ही साथ देता है, अर्थात सभी क्रांतिकारी आंदोलनों और क्रांतिकारी वर्गों के खिलाफ उनके साथ मिल जाता है।' विदेशी पूंजीपतियों के खिलाफ 'निरंतर संघर्ष में रहना' और 'क्रांतिकारी वर्गों के खिलाफ उनके साथ मिल जाना ये दोनों रूझान दो किस्म के पूंजीपति वर्ग के चरित्र के बुनियादी अंतर स्पष्ट कर देते हैं। भारत के स्वतंत्रता संघर्ष में यहां के पूंजीपतियों ने अपने आचरण से लेनिन के विश्लेषण की पुष्टि की है। फिर भी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी लेनिन के इस विश्लेषण को आत्मसात कर उसे धरातल पर उतारने में विफल रही।
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इस भटकाव और अन्य परिस्थितिजन्य कारणों से भारत का स्वतंत्रता संघर्ष पूंजीपति वर्ग के हाथों में बना रहा जिसका चरित्र साम्राज्यवादपरस्त (दलाल) था । इसी के नेतृत्व में 15 अगस्त, 1947 को साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष का दूसरा दौर समाप्त हो गया। पहला दौर देशभक्त सामंतों के नेतृत्व में लड़ा गया था जो 1857 में पराजित हो गया था। इस बार ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने साम्राज्यवादी पूंजी (खासकर ब्रिटिश पूंजी ) के हितों की रक्षा तथा उसके विश्वस्त सहयोगी राजे-रजवाड़ों और जमींदारों की सुरक्षा की गारंटी लेते हुए ब्रिटिश संसद में पारित बिल के आधार पर भारत और पाकिस्तान नामक दो डोमिनियन स्टेट के निर्माण की घोषणा की। यह था भारत की आजादी का राजनीतिक व वैधानिक आजादी स्टेटस। लेकिन भारतीय पूंजीपति वर्ग के प्रतिनिधियों ने इसे मुकम्मल घोषित कर महिमामंडित किया। इतिहासकारों ने समग्र विश्व की राजनीतिक व सामाजिक परिस्थिति का विश्लेषण करने के बजाय इसका सारा श्रेय साबरमती के संत पर निरूपित कर दिया। किसी राष्ट्रीय संघर्ष का इस हद तक मिथ्याकरण यूरोप के इतिहास में देखने को नहीं मिलेगा।
दरअसल, दूसरे विश्वयुद्ध के बाद ब्रिटेन के विश्व प्रभुत्व का झंडा धूल धूसरित हो गया था और उसकी जगह अमेरिकी प्रभुत्व का झंडा लहराने लगा था। इस नये प्रभु को पुराने उपनिवेशवाद का बदनाम चेहरा पसंद नहीं था। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद सोवियत संघ की प्रतिष्ठा कई गुना बढ़ गयी थी. पूर्वी यूरोप सहित चीन तथा दक्षिणी पूर्वी एशिया के कई देशों में लाल परचम लहराने लगा था। चीन ने तो उत्पीड़ित देशों के सर्वहारा के सामने क्रांति की नयी मिसाल ही पेश कर दी थी इन सबके दबाव में साम्राज्यवाद ने उपनिवेशों में नयी कार्यपद्धति अपनायी और हमारे देश के पूंजीपतियों ने इस बदली परिस्थिति में उसकी परोक्ष अधीनता में काम करना स्वीकार कर लिया। इस प्रकार भारत का साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष पहली मंजिल पार कर दूसरी मंजिल में प्रवेश कर कम्युनिस्ट आंदोलन में बहस का नया मुद्दा बन गया ।
इस संदर्भ में हम रूस के मजदूर वर्ग की पार्टी के निर्माण की परिस्थिति पर गौर करें। इस श्रृंखला की पहली कड़ी में उल्लेख किया जा चुका है कि
रूस यूरोप का विलक्षण देश था, जहां मजदूर वर्ग की पार्टी पहले बनी और पूंजीपति वर्ग की पार्टी बाद में फिर भी, निम्नपूंजीवादी क्रांतिकारी संघर्ष की विरासत उनके साथ थी।
रूसी क्रांतिकारियों (नरोदवादी) ने यूरोप के किसी देश की तुलना में मार्क्सवाद का सबसे गहन अध्ययन और विवेचन किया था।
इस प्रक्रिया में जरूरत पड़ने पर उन्हें मार्क्स-एंगेल्स का दिशा निर्देश भी उपलब्ध हो जाया करता था। यह तस्वीर का एक पक्ष था। इस आंदोलन का दूसरा पक्ष मार्क्सवाद को खारिज करने पर उतारू था। इस वैचारिक संघर्ष के बीच रूस का पहला मार्क्सवादी समूह इनके बीच से पैदा हुआ जिसने मार्क्सवाद को स्थापित करने और नरोदवाद को खारिज करने के लिए एड़ी-चोटी का प्रयास किया। इसके बावजूद पार्टी की स्थापना में लगभग दो दशक लगे।
इन सभी मामलों में भारत की स्थिति उल्टी रही है :- भारत एशिया का ऐसा उपनिवेश था जिसपर ब्रिटिश साम्राज्यवाद की पकड़ सबसे मजबूत थी। यह इस क्षेत्र में ब्रिटिश साम्राज्यवाद का केंद्र था।
यहां ऐसे औद्योगिक पूंजीपति वर्ग का उदय हो चुका था जिसके हित वाणिज्यिक पूंजीवाद के दौर से ही साम्राज्यवादी हितों के साथ जुड़े हुए थे और जो बड़े ही शातिराना ढंग से जनता की स्वतंत्रता की आकांक्षा को ब्रिटिश हितों के अधीन कर देता था। पहले विश्वयुद्ध की पूर्व वेला में जब गदर पार्टी के योद्धा ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ युद्ध का उद्घोष कर मौत को गले लगा रहे थे वहीं गांधी ब्रिटिश सेना में भर्ती होने की अपील देश के नौजवानों से कर रहे थे। ब्रिटिश साम्राज्य के सबसे मुखर विरोधी बाल गंगाधर तिलक भी युद्ध की घड़ी में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के पक्ष में खड़े हो गये थे। देश के मजदूरों को राजनीति के भंवर में खींचने का श्रेय इन्हीं नेताओं को जाता था और यहां के मजदूरों पर इस समझौता परस्त राजनीति का रंग चढ़ चुका था।
• इसलिए मजदूर वर्ग के प्रतिनिधियों की सबसे बड़ी जिम्मेवारी यह बनती थी कि मजदूरों को इस राजनीतिक प्रभाव से मुक्त करें। लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक सदस्यों में से कुछ तो गांधीवाद से गहरे ढंग से प्रभावित थे । पार्टी की बुनियाद में बैठी यह कमजोरी राजनीतिक विकास के हर मोड़ पर उसकी गतिविधियों को प्रभावित करती रही।
आतंकवादी धारा से भगत सिंह के नेतृत्व में निकला हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन की स्थिति इससे भिन्न थी, लेकिन उनकी कार्रवाइयों को जनसमर्थन नहीं मिलने के कारण ब्रिटिश साम्राज्यवाद के लिए उनको कुचल देना आसान हो गया था ।
इन तथ्यों का हवाला देकर हम यह निष्कर्ष नहीं निकाल सकते कि पार्टी का बनना गलत था या इसने स्वतंत्रता संघर्ष के इतिहास में कोई सकारात्मक भूमिका नहीं निभायी जैसा कि निम्नपूंजीवादी विचारक निकाला करते हैं। इसका विस्तृत विश्लेषण हम आगे के अध्यायों में करेंगे।