आज के दौर में नौजवानों के कार्यभार
(17th March, 2023)
- डॉ रामकवींद्र
हमारे देश के माननीय प्रधानमंत्री के शब्दों में यह दौर (2022-47) आजादी का अमृत काल है I शासक वर्ग की विपक्षी पार्टियों की नजर में यह 'मित्र काल' (क्रोनी पूँजीवाद का काल) है I लेकिन मेहनतकश जनता के प्रतिनिधियों को इस काल में आपातकाल की आहट सुनाई पड़ने लगी है और उन्हें अर्थनीति और राजनीति के दो रूप साफ दिखाई पड़ने लगे हैंI एक तरफ देशी-विदेशी पूंजीपतियों के गठजोड़ पर अमृत कलश उड़ेला जा रहा है, तो दूसरी तरफ मजदूरों, किसानों और समस्त उत्पीड़ित समूह के गरीब-गुरबों को विष का प्याला पीने को मजबूर किया जा रहा हैI
इसके विरोध में उठ रही हर आवाज के दमन के लिए राजकीय दमन का हर हथियार अपनाया जा रहा हैI साथ ही यह भी कोशिश हो रही है कि कट्टर हिंदुत्व का अफीम लोगों को इतना पिला दिया जाय कि वे या तो दंगाई बन जाएं या अपने कष्ट भूल जाएं या याद भी पड़े तो आवाज उठाने में सक्षम नहीं रह पाएंI ये हैं आज के दौर की खास विशेषताएं जहाँ पूँजी, राजनीति, धर्म और अपराध जगत की सांठ-गांठ साफ दिखाई पड़ रही है. इस गठबंधन के खिलाफ मेहनतकश व उत्पीड़ित जनता को सचेत और संगठित कर संघर्ष के मैदान में उतार देना नौजवानों का केंद्रीय कार्यभार हैI
उपर्युक्त प्रतिक्रियावादी गठबंधन हमारे देश की राजनीति में ब्रिटिश साम्राज्यवाद की देन है जो आज भी फल-फूल रही है. पिछले आठ-नौ वर्षों के आरएसएस समर्थित भाजपा राज में यह गठबंधन आजादी के बाद के किसी भी समय से ज्यादा तेजी से फला-फुला है. इस स्थिति को ध्यान में रखकर भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की शहादत को क्रांति के प्रेरणास्रोत के रूप में याद करते हुए जब हम आज के दौर में नौजवानों के कार्यभार पर विचार करते हैं तो ब्रिटिश राज की तत्कालीन परिस्थिति और आज की परिस्थिति में कई समानताएं दिखाई पड़ने लगती हैं और लगता है कि उनलोगों की सीखें आज भी प्रासंगिक हैं. कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन (19 दिसम्बर, 1929) में वितरित पर्चा 'हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन का घोषणा पत्र' में एसोसिएशन ने स्पष्ट कर दिया था कि भारतीय पूँजीपति भारतीय लोगों को धोखा देकर विदेशी पूंजीपति से विश्वासघात की कीमत के रूप में सरकार में कुछ हिस्सा प्राप्त करना चाहता है; इसी कारण मेहनतकश की तमाम आशाएं अब सिर्फ समाजवाद पर टिकी हैं और इस कार्यभार को सिर्फ युवा ही पूरा कर सकते हैं. निस्संदेह, वे समझ चुके थे कि भारत का पूंजीपति वर्ग साम्राज्यवाद का मुकम्मल विरोध और देश की जनता के मुकम्मल हितों का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता है. इस स्थिति में जाहिर है कि जब वे युवा की बात कर रहे थे तो उनके जेहन में मेहनतकशों की औलाद थे जिनके हित स्वाभाविक रूप से समाजवाद से जुड़े थे और फिर वैसे बुद्धिजीवी जो इस ध्येय की प्राप्ति के लिए जीने-मरने को तैयार थे.
धर्म के बारे में भी उनके विचार उतने ही स्पष्ट थे. नौजवान भारत सभा, लाहौर के घोषणापत्र में वे बड़े स्पष्ट शब्दों में घोषणा करते हैं कि धार्मिक अंधविश्वास और कट्टरता हमारी प्रगति में बहुत बड़े बाधक हैं. वे हमारे रास्ते के रोड़े साबित हुए हैं और हमें उनसे हर हाल में छूटकारा पा लेना चाहिए. इसके खतरनाक पक्ष को उजागर करते हुए वे कहते हैं कि हिन्दुओं की दकियानुसी और कट्टरता, मुसलमानों की धर्मांधता और दूसरे देशों से लगाव और आम तौर पर सभी समुदायों के लोगों का संकुचित दृष्टिकोण आदि बातों का विदेशी शत्रु हमेशा लाभ उठाता है. इन बातों का मतलब बहुत साफ है कि विदेशी पूँजी का प्रभाव जितना बढेगा, धार्मिक कट्टरता की फसल उतनी ही लहलहाएगी, स्वतंत्र विचारों पर हमले उतने ही तेज होंगे और फासिस्ट तानाशाही का खतरा उतना ही मजबूत होगा.
एसोसिएशन की उपर्युक्त दोनों घोषणाओं के आलोक में आज के दौर को समझने की जरूरत है. यही कार्यभार निर्धारण की कुंजी होगी. भगत सिंह और उनके साथियों ने तत्कालीन परिस्थिति में भविष्य का जो पूर्वनुमान लगाया था, वह 15 अगस्त, 1947 को ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मिली आजादी के समय सच साबित हो गया यानी देश प्रत्यक्ष रूप से तो आजाद हो गया था, लेकिन अर्थनीति, राजनीति और संस्कृति पर साम्राज्यवाद की पकड़ अप्रत्यक्ष रूप से बनी रह गयी थी. नतीजा यह हुआ कि ब्रिटिश राज और भारतीय पूँजीवाद के बीच जनविरोधी समझौता के बावजूद देश की अर्थनीति और राजनीति में भारी बदलाव आया. अब सत्ता की बागडोर प्रत्यक्ष रूप में बड़े पूंजीपतियों और बड़े सामंती जमींदारों के गठबंधन के हाथ में आ गया था जिसकी कुंजी अप्रत्यक्ष रूप से साम्राज्यवादी शक्तियों के पास बनी रही. बाद के दिनों में किसान आंदोलन के दबाव में और पूंजीवादी विकास की जरूरत के अनुकूल सामंती संबंधों में बदलाव आया और कृषि व्यवस्था पर कुलकों और धनी किसानों का वर्चस्व बनने लगा.
हम जब आज के दौर की बात करते हैं तो उसका मतलब होता है नवउदारवाद का दौर यानी 1990 के बाद की नई आर्थिक नीति का दौर. तीस वर्षों से ज्यादा की इस अवधि में जो पीढ़ी पली-बढ़ी है, उसके लिए इसके पहले की कल्याणकारी राज्य की अवधारणा गुजरे जमाने की बात हो गयी है. इस नये दौर (दरअसल तीस-पैंतीस साल पुराने) की शुरुआत बड़े आक्रामक ढंग से हुई थी. एक तरफ देश में विदेशी पूँजी (कहें साम्राज्यवादी देशों की वित्तीय पूँजी) के आवग की राह के सारे रोड़े हटाए जाने लगे थे, तो दूसरी तरफ मजदूरों के सारे ट्रेड यूनियन अधिकार छीने जा रहे थे. इस प्रकार इस दौर में देशी-विदेशी पूँजी के गठजोड़ को श्रम और देश के प्राकृतिक संसाधनों की लूट की अबाध छूट देने की तैयारी शुरू हो गयी थी. उस समय इस नीति का विरोध भी हुआ था और जनता को बताया गया था कि नयी आर्थिक नीति नयी गुलामी का दस्तावेज है, लेकिन वह प्रतिरोध इतना व्यापक और मजबूत नहीं हुआ कि सरकार पर लगाम लगा सके. समाजवाद की स्थापना कर भगत सिंह और उनकी शहादत को सार्थक बनाने की पूर्व शर्त है कि देश के नौजवान बड़े पूंजीपतियों के समझौतापरस्त चरित्र को जन-जन के जेहन में पिरो दें. यह उनका पहला कार्यभार है.
इस अर्थनीति के अनुकूल ही उस समय एक राजनीति का विकास भी हो रहा था जिसका मकसद था कि वर्ग संघर्ष की रही सही राजनीति को पृष्ठभूमि में धकेलकर जाति, धर्म और पहचान की राजनीति के अन्य पहलू को सामने लाया जाय. एक सोची समझी साजिश के तहत एक तरफ राम मंदिर के विवाद को राजनीतिक हवा देकर कट्टर हिंदुत्व की जमीन तैयार की जा रही थी तो दूसरी तरफ आरक्षण के विवाद को तुल देकर जातीय ध्रुवीकरण की कोशिश की जा रही थी. हिंदी प्रदेशों में इस नये उभार ने गंभीर सामाजिक हलचल पैदा कर दी थी. इससे सामंती संस्कृति तो कमजोर हुई, लेकिन साम्राज्यवाद का प्रभाव बढ़ता ही गया. इस संघर्ष के प्रारम्भिक दौर में ऐसा लगा कि जातीय एकता धार्मिक ध्रुवीकरण पर भारी पड़ेगी, लेकिन परिस्थिति ने तुरंत पलटा खाया और नये नये जातीय गठबंधन के टूटने और बनने का दौर शुरू हो गया. इस सामाजिक हलचल के फलस्वरूप राजनीतिक परिदृश्य बदले. साम्राज्यवादपरस्त पूंजीवादी राजनीति में दलित व पिछड़ी जातियों के नवधनाढ्यों का दबदबा बढ़ा और सत्ता में उनकी राजनीतिक हिस्सेदारी पुख्ता हो गयी.
इसके साथ ही नये राजनीतिक समीकरण के उभार का दौर शुरू हो गया. 1990 के दशक के उत्तरार्द्ध से भाजपा के राजनीतिक अलगाव का दौर खत्म हो गया और 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में न्यूनतम कार्यक्रम के आधार पर केंद्र में गठबंधन की सरकार भी बनी. उस समय राममंदिर और धारा 370 के मुद्दे इससे अलग रखे गये थे. लेकिन 2014 में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में बनी सरकार तो कट्टर हिंदुत्व की सरकार बन गयी है. हालांकि यह सरकार बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर जनपक्षीय तेवर के साथ सत्ता में आयी थी, फिर भी गुजरात दंगे के अनुभव के आधार पर क्रान्तिकारी और जनवादी शक्तियां सशंकित थीं कि यह सरकार हिंदुत्ववादी तानाशाही की दिशा में तेजी से कदम बढ़ाएगी और वैसा ही हुआ.
इस सरकार ने गोलवरकर और सावरकर के पदचिन्होँ का अनुसरण करते हुए सबसे पहले वाम-जनवादी तथा दलित बुद्धिजीवियों पर हमला तेज किया. नरेन्द्र दाभोलकर, गोविन्द पंसारे, एमएम कलबुर्गी, गौरी लंकेश की हत्या और रोहित वेमुला की आत्महत्या (वस्तुतः सांस्थानिक हत्या) इस श्रृंखला के महत्वपूर्ण नाम हैं. ब्रिटिश राज में सांप्रदायिक शक्तियों के हाथों मारे गये गणेश शंकर विद्यार्थी की तरह इन लोगों के नाम भी इतिहास के स्वर्णक्षरों में लिखे जायेंगे. उसके तुरंत बाद गौरक्षा के नाम पर 2015- 18 के बीच लगभग 44 लोगों की भीड़ द्वारा सुनियोजित हत्या कराई गयी जिसमें मुसलमानों की संख्या लगभग 36 थी. तानाशाही लाने के उद्देश्य से यह वामपंथियों, दलितों और अल्पसंख्यकों (खासकर मुसलमानों और ईसाईयों) पर सुनियोजित हमला था.
इन हमलों के दो उद्देश्य थे: विरोधियों को आतंकित करना और जनता के बीच साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को मजबूत करना. दूसरे उद्देश्य में संघ परिवार सफल भी रहा और इसका लाभ उसे 2019 के लोकसभा चुनाव में मिला. पहले से भी भारी बहुमत से जीत के बाद भाजपा सरकार ने राज्य की ओर से सुव्यवस्थित हमले शुरू किये. जम्मू और कश्मीर में धारा 370 का खात्मा व दो भागों में बांटकर उसे केंद्रशासित प्रदेश घोषित करना और सीएए इस दिशा में सबसे क्रूर हमले थे. जम्मू और कश्मीर तो लम्बे समय तक जनता के लिए जेल बना रहा, लेकिन देश में इसका सक्रिय विरोध नहीं हुआ. उसी समय नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) लागू हुआ जिसका भरपूर विरोध हुआ. शाहीन बाग की दादियाँ तो इस संघर्ष की नायिका बन गयी थीं. कोविड महामारी के दौर में सरकार की उपेक्षा से पीड़ित मजदूर हजारों किमी पैदल चलकर घर आने को मजबूर हुए, लोग ऑक्सीजन और अन्य दवाइयों के अभाव में तड़पकर मरते रहे,और सरकार और उसकी पालतू मीडिया तबलीगी जमात पर निशाना साधकर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण कराते रहे.
इसी दौर में कृषि क्षेत्र को देशी-विदेशी पूंजीपतियों के हाथों नीलाम करने के उद्देश्य से तीन कृषि कानून बने जिनके खिलाफ किसानों ने जीवन मरण का संघर्ष कर जीत हासिल की. लेकिन लाभकारी मूल्य के सवाल पर संघर्ष अभी जारी है. उसी तरह मजदूरों के खिलाफ फोर लेबर कोड बनकर तो तैयार है लेकिन लागू नहीं हो पा रहा है. सारांश के तौर पर कहें तो देश में जनतंत्र का गला घोंटकर फासिज्म थोपने के दिशा में कदम उठाने की पूरी तैयारी हो चुकी है जिसके खिलाफ उठ खड़ा होना नौजवानों का सबसे बड़ा दायित्व है.
देश ने इसके पहले भी फासिज्म का हमला झेला है. लेकिन आज स्थिति ने यू टर्न ले लिया है. उस समय फासिज्म थोपनेवाली कांग्रेस आज कन्याकुमारी से कश्मीर तक की सड़क नाप रही है और जनतंत्र की हुंकार भर रही है. वहीं उस समय फासिज्म के खिलाफ खड़े जनसंघ का परिवर्तित रूप भाजपा की सरकार फासिज्म थोप रही है. इसका सबक बिल्कुल साफ है. देश की साम्राज्यवादपरस्त कोई पूंजीवादी पार्टी फासिज्म के खिलाफ मुकम्मल लड़ाई नहीं लड़ सकती. यह काम सिर्फ मजदूर वर्ग की क्रांतिकारी पार्टी के नेतृत्व में ही पूरा हो सकता है. ऐसी स्थिति में नौजवानों के सामने तीन कार्यभार पैदा होते हैं :
मजदूरों को सचेत कर वर्ग के रूप में संगठित करना और संघर्ष के मैदान में उतार देना
मजदूर-किसान (खासकर गरीब किसान) गठबंधन का निर्माण करना तथा
मजदूर-किसान गठबंधन के इर्दगिर्द सभी उत्पीड़ित समूहों को एकजुट कर व्यापक जनवादी एकता का निर्माण करना.
इस व्यापक एकता के बल पर ही साम्राज्यवाद और उसके समर्थन में खड़ी सभी प्रतिक्रियावादी शक्तियों का नाश कर फासिज्म के खतरे से निबटा जा सकता है और भगत सिंह और उनके साथियों के सपनों को पूरा कर मेहनतकश जनता का राज और समाजवाद का निर्माण किया जा सकता है.
जनतंत्र की वर्ग दृष्टि
- डॉ रामकवींद्र
संसद के शीत सत्र में विपक्ष के 146 सांसदों के निलंबन के बाद पूंजीवादी बुद्धिजीवियों में एक तल्ख बहस छिड़ गयी है. विषय है तानाशाही (फासिज्म) की ओर मोदी सरकार के बढ़ते कदम. अपनी आदत के मुताबिक ही ये बुद्धिजीवी अतीत की तानाशाही की व्याख्या करते हुए एक तरफ हिटलर पर हमला करते हैं, तो दूसरी तरफ लेनिन, स्तालिन और माओ सबको तानाशाह की श्रेणी में डाल देते हैं.
यह स्थिति तब है जब मार्क्सवादी खेमा पूरी निष्ठा के साथ मोदी के नेतृत्व में आरएसएस-भाजपा की फासिस्ट सत्ता के खिलाफ व्यापक मोर्चाबंदी के लिए तत्पर है. अतीत में भी हिटलर, मुसोलिनी और तोजो की फासिस्ट धूरी के खिलाफ सबसे सुसंगत संघर्ष स्तालिन के नेतृत्व में सोवियत संघ ही कर रहा था. लेकिन दोनों परिस्थितियों में बुनियादी फर्क है. तब सोवियत संघ इस संघर्ष के केंद्र में था, आज कम्युनिस्ट खेमा हाशिए पर है.
अपने देश के पूंजीवादी बुद्धिजीवियों के आचरण को देखते हुए माओ का कथन याद आ जाता है. वे चीन के राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग के बारे में कहा करते थे कि इस वर्ग की नीति दोहरी है - दाहिना घुस्सा साम्राज्यवादियों को मारो और बायां घुस्सा कम्युनिस्टों को. हमारे देश में साम्राज्यवाद विरोधी राष्ट्रीय पूंजीपति की कोई संगठित पार्टी नहीं है, इसलिए इनका दाहिना घुस्सा नहीं उठ पाता या मजबूती से नहीं उठ पाता और इन बुद्धिजीवियों की कम्युनिस्ट विरोधी घृणा कुछ ज्यादा ही तल्ख हो जाती है. लगता है, उनकी नीति बन गयी है, फासीवाद रहे तो रहे, लेकिन क्रांतिकारी कम्युनिस्ट उभरने न पाएं.
भाकपा, माकपा सरीखे कम्युनिस्ट तो पूंजीवादी विपक्षी दलों के इंडिया गठबंधन में भी शामिल हैं और रोज-ब-रोज अपना जनाधार और अपनी प्रतिष्ठा खो रहे हैं. क्रांतिकारी खेमे की स्थिति भी बहुत बेहतर नहीं है. छोटे-बड़े कई दलों और ग्रुपों में विभाजित यह खेमा बिना शर्त के इस गठबंधन के पक्ष में खड़ा है और कम्युनिस्ट विरोधी इस घिनौने दुष्प्रचार के खिलाफ आवाज उठाने में कोताही बरतता है या मौन साध लेता है.
हमारे देश के पूंजीवादी बुद्धिजीवियों का सबसे बड़ा संकट है कि वे अपने पूर्वजों की दुर्दशा से भी कुछ सीखने को तैयार नहीं है. हिटलर के उभार को भी उस समय की साम्राज्यवादी शक्तियों का समर्थन प्राप्त था जो बाद में मजबूरन फासीवाद विरोधी संघर्ष में शामिल हुए. शुरू में उन्हें उम्मीद थी कि हिटलर और मुसोलिनी जैसे राक्षस सोवियत संघ का तो नाश कर देंगे, लेकिन उनके सामने दुम हिलाते रहेंगे. यह भ्रम तुरंत टूट गया जब हिटलर का भष्माससुरी रूप देखने के बाद उनकी अक्ल खुली और वे उसके खिलाफ सोवियत संघ से हाथ मिलाने को मजबूर हुए. इसके विपरीत स्तालिन शुरू से ही मानते थे कि फासिस्ट शक्तियों का खात्मा जन मोर्चा यानी फासिस्ट विरोधी सभी शक्तियों के संयुक्त संघर्ष से ही सम्भव हो सकता है.
ऐसा ही हुआ जिसका लाभ पूरी दुनिया की साम्राज्यवाद विरोधी शक्तियों को मिला. फासिस्ट शक्तियां बर्बाद हो गयीं, उपनिवेशवादी शक्तियां पीछे हटने को मजबूर हुईं और इसी क्रम में हमारे देश को आधी-अधूरी आजादी मिल गयी. इतिहास के इस सच पर गौर करें तो इसमें शक की कोई गुंजाईश नहीं रहेगी कि स्तालिन के नेतृत्व में विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन फासिस्ट तानाशाही के खिलाफ खड़ा होकर पूंजीवादी जनतंत्र की हिफाजत कर रहा था. कम्युनिस्ट अच्छी तरह जानते हैं कि सर्वहारा क्रांति के विकास के लिए पूंजीवादी जनतंत्र आदर्श परिस्थिति मुहैया कराता है. दरअसल, सर्वहारा अधिनायकत्व जनतंत्र की सर्वोत्तम अवस्था है जिसमें मेहनतकश आबादी को सबसे ज्यादा अधिकार मिलता है. अपनी वर्गदृष्टि के कारण पूंजीवादी व निम्नपूँजीवादी बुद्धिजीवी इस स्थिति को पसंद नहीं करते. यही है इनकी घृणा की असली वजह.
हमारे देश के पूंजीवादी जनतंत्र की सबसे बड़ी कमजोरी रही है उसकी साम्राज्यवादपरस्ती. इस अर्थ में देश की आजादी भी सीमित है और पूंजीवादी जनतंत्र भी सीमित है. आज जो लोग देश की बागडोर संभाल रहे हैं, उन्होंने आजादी की लड़ाई में भाग लेने के बजाय मुसोलिनी और हिटलर का समर्थन किया था और अंग्रेजों की सेवा की थी. तब उनके चेले और भक्त अगर हिटलर की तारीफ करते हैं तो आश्चर्य कैसा! हमें डर है कि हिटलर ने अपने देश की जैसी दुर्दशा की थी, ये उससे भी बुरा हाल कर देंगे.
इसलिए इनका विरोध तो जरूरी है, लेकिन साथ ही पूंजीवादी बुद्धिजीवियों की ओर से जारी कम्युनिस्ट विरोधी दुष्प्रचार का विरोध भी उतना ही जरूरी है. इतिहास का सबक याद रखें साम्राज्यवाद और फासीवाद के खिलाफ अंतिम और निर्णायक लड़ाई मजदूर वर्ग को ही लड़नी होगी. इसका रास्ता चाहे जितना टेढ़ा मेढ़ा और लम्बा हो. इसलिए अपने दीर्घकालिक एजेंडा की उपेक्षा करना हमें अनिवार्यतः अवसरवाद की ओर ले जायेगा. -कवीन्द्र
देशभक्ति और जनतंत्र का प्रहसन
(23rd March, 2023)
- डॉ रामकवींद्र
देश की संसद में आजकल बवाल चल रहा है. बजट सत्र का दूसरा दौर 13 मार्च से शुरू तो हो गया, लेकिन एक दिन भी कामकाज नहीं हुआ. कल तो लोकसभा अध्यक्ष ने पूंजीवादी संसदीय मर्यादा की सारी सीमाएं तोड़कर संसद की आवाज ही घोंट दी. सदस्यों के माइक म्यूट कर दिये गये.
लेनिन पूंजीवादी संसद को गपाड़ियों का अड्डा कहा करते थे. लेकिन यहाँ तो भारतीय संसद में विपक्षियों के मुंह पर "देशभक्ति का ताला" जड़ दिया गया, वे गप भी नहीं कर सकते. पूंजीवादी लोकतंत्र का कितना भद्दा मजाक है यह!
समुएल जॉनसन की प्रसिद्ध उक्ति 'देशभक्ति बदमाशों उचक्कों का अंतिम आश्रय होता है', यहाँ सटीक बैठती है. उनका तंज नकली देशभक्ति पर था. यहाँ भी दृश्य कुछ वैसा ही है.
शोर मचा है कि राहुल ने कैम्ब्रीज विश्वविद्यालय में देश में जनतंत्र का गला घोंटे जाने का आरोप लगाकर देश का "अपमान" किया है. इसके पहले 2002 के गुजरात मुस्लिम जनसंहार पर बीबीसी के डॉक्यूमेंट्री यह कहते हुए बैन की गयी थी कि यह देश की संप्रभुता पर हमला है. अडानी घोटाले पर हिंदेनबर्ग रिपोर्ट को भी देश पर हमला कहा गया. ऐसा लगता है कि देशभक्ति अडानी और उनके समर्थक नेताओं के स्टॉक में पड़ा राजनीतिक माल है जिसे वे सुविधानुसार बाजार में बेच दें.
याद दिला दें कि दो साल पहले (2021 में) अमेरिकी संस्था फ्रीडम हाउस ने भारत की आजादी और जनतंत्र का दर्जा घटाकर उसे आंशिक जनतंत्र की श्रेणी में डाल दिया था. उसने अमेरिकी जनतंत्र की भी आलोचना की थी, लेकिन अमेरिका में उसपर देशद्रोह का अरोप नहीं लगा. इसके पहले कोविड पीरियड में स्वेडेन के वी डैम विवि के शोधकर्ता तो भारतीय जनतंत्र को मुश्किल से ही जनतंत्र मान पा रहे थे. यह है दुनिया के पूंजीवादी जनवाद के बीच भारत का दर्जा.
हमारे शासक ऐसे मूल्यांकनों पर दोहरा मापदंड अपनाते हैं. जब उनकी प्रशंसा होती है तो ये विचारक जनवादी और मूल्यवान हो जाते हैं, लेकिन जब आलोचना करते हैं तो उपनिवेशवादी. इसलिए कहना पड़ता है कि हमारे देश के जनतंत्र में भारी खोट है.
राहुल गाँधी पर आरोप लगने के बाद कांग्रेस भी मैदान में डट गयी है. प्रधानमंत्री के दक्षिण कोरिया, चीन, जापान, कनाडा आदि कई देशों में बड़बोले बयानों के वीडियो सामने आ गये हैं जिनमें उनके सत्तासीन होने के पहले के भारत को दीनहीन बेचारा की तरह बताया गया है. इसी संदर्भ में इन महनुभावों पर सैमूएल जॉनसन की बात सही लगती है.
दरअसल सत्ता और विपक्ष अपनी अपनी बातों पर अड़े हैं. सत्ता पक्ष की मांग है कि कैंब्रीज विश्वविद्यालय में अपने भाषण से 'देश का अपमान' करने के एवज में राहुल गाँधी माफी मांगें और विपक्ष पहले से मांग कर रहा है कि अडानी घोटाला प्रकरण पर प्रधानमंत्री वक्तव्य दें और उसकी जाँच के लिए संयुक्त संसदीय समिति का गठन हो.
विचित्र स्थिति है! एक तरफ संसद को म्यूट कर राहुल गाँधी के आरोपों की पुष्टि की जा रही है और दूसरी ओर उनसे माफी मांगने के लिए दबाव बनाया जा रहा है. कल की घटना ने सारी दुनिया के सामने उजागर कर दिया है कि विपक्षी सासदों के माइक म्यूट करने का राहुल का आरोप सही है, तो अब किस बात की माफी. सच बोलने की?
कल की घटना ने पूंजीवादी राजनीति के एक और कुरूप सच को उजागर कर दिया है कि देश की राजनीति किस कदर बदल गयी है. 1975 में इंदिरा गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस तानाशाही का प्रतिनिधित्व करती थी और आरएसएस उसके खिलाफ संघर्ष की आवाज उठा रहा था. आज का सच है कि संघ परिवार अपने राजनीतिक आउटफिट भाजपा के नेतृत्व में तानाशाही का प्रतिनिधित्व कर रहा है और कांग्रेस नेता राहुल गाँधी कन्याकुमारी से कश्मीर तक पदयात्रा कर रहे हैं. उस समय कांग्रेस विपक्ष की आवाज घोंट रही थी, आज भाजपा के नरेंद्र मोदी राहुल की आवाज घोंट रहे हैं. जाहिर है कि इनमें कोई भी जनतंत्र का विश्वस्त रक्षक नहीं है.
विश्व राजनीति में भी भारी बदलाव आ गया है. उस समय की दुनिया अमेरिका और सोवियत संघ (साम्राज्यवादी व सामाजिक साम्राज्यवादी) के प्रभुत्व में दो खेमों में बंटी थी और भारत सरकार सोवियत खेमे का मजबूत स्तम्भ बन गयी थी. अपने आका के सहयोग से 1971 युद्ध में पाकिस्तान को बांटकर इंदिरा गाँधी 'दुर्गा का अवतार' बन गयी थी और यह तमगा तत्कालीन जनसंघ अध्यक्ष अटल बिहारी वाजपेयी ने ही दी थी.
दूसरी ओर 1974 में छात्र आंदोलन की चिंगारी उठ रही थी, जिसने जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में राष्ट्रव्यापी दावानल का रूप धर लिया था और विपक्षी दल उसमें अपनी रोटी सेंकने के फिराक में नजर गड़ाए थे. इमरजेंसी ने वह मौका दे दिया. फिलहाल हम उस विवरण में नहीं जायेंगे कि इमरजेंसी क्यों और कैसे हटी, लेकिन उसके बाद के चुनाव में जेपी के नेतृत्व में आनन फानन में चुनावी एकता कायम हो गयी और इंदिरा गाँधी सत्ता से बेदखल हो गयीं.
आज विश्व राजनीति संक्रमण के दौर से गुजर रही है. दुनिया पर एकक्षत्र अमेरिकी दबदबा का सपना चूरचूर हो रहा है, लेकिन चीन-रूस के नये ध्रुव का दबदबा कायम नहीं हुआ है. इसकी छाप भारत में उभरते संकट पर दिखने लगी है. तानाशाही और जनतंत्र के तेज होते विवाद के रूप में.
इस स्थिति में पूंजीवादी पक्ष और विपक्ष के बीच से किसी का चुनाव तत्काल राहत तो दे सकता है, लेकिन अंतिम लड़ाई तो क्रान्तिकारी और साम्राज्यवाद विरोधी जनवादी शक्तियों के नेतृत्व में ही लड़ी जाएगी.- कवीन्द्र (क्रमशः)
देशभक्ति और जनतंत्र का प्रहसन (2)
(23rd March, 2023)
- डॉ रामकवींद्र
देशभक्ति और जनतंत्र के इस प्रहसन के दो महत्वपूर्ण पक्ष हैं. जनता के मुद्दों को एजेंडा से बाहर कर देना है और झूठ को इस अंदाज में परोसना है कि वह लोगों को सच लगे और भाजपा के जनविरोधी चेहरे पर देशभक्ति का लेप चढ़ाया जा सके. लेकिन अब यह मामला एक तरफा नहीं रह गया है जैसाकि 2014-19 के बीच हुआ करता था. अब कांग्रेस और अन्य पूंजीवादी पार्टियां भी जवाबी कार्रवाई में माहिर हो चुकी हैं और झूठ के पर्दाफास का कोई मौका हाथ से जाने नहीं दे रही हैं.
चुनावी अभियान के वर्तमान दौर में झूठे प्रचार के घृणित अभियान पर गौर करें. तमिलनाडु में बिहारी मजदूरों पर हमले के झूठे प्रचार के भंडाफोड़ के थोड़े ही दिनों के अंतराल में ऐसी चार घटनाएं घटी हैं जिसने भाजपा और आरएसएस की हिटलरी नीति को सामने ला दिया है. राहुल गाँधी ने लंदन के विभिन्न मंचों पर दिये गये वक्तव्यों में यह नहीं कहा था कि अमेरिका या ब्रिटेन भारत में जनतंत्र की स्थापना के लिए हस्तक्षेप करें, लेकिन आरएसएस भाजपा की ट्रॉल आर्मी इस प्रचार में लगी है कि उन्होंने दूसरे देश की धरती पर देश का अपमान किया और वे देशद्रोही हैं.
झूठ की इस श्रृंखला में सोशल मीडिया में यह खबर भी आयी कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को नोबेल पुरस्कार के लिए नामित किया गया है, लेकिन तुरंत इसका भंडाफोड़ हो गया और खबर भी गायब हो गयी. उसी तरह यह प्रचार करने की कोशिश हुई कि जमामस्जिद दिल्ली के इमाम बुखारी भाजपा में शामिल हुए हैं. बाद पता चला कि यह फेक न्यूज है. हद तो तब हो गयी जब एक राष्ट्रीय टीवी चैनल ने प्रधानमंत्री मोदी के वक्तव्य को कॉंग्रेस अध्यक्ष खरगे के नाम के साथ जोड़ दिया. जब कांग्रेस के प्रचारतंत्र ने उनकी खबर लेनी शुरू की तो उन्होंने माफी तक मांगी. इस प्रकार सोशल मीडिया विभिन्न पार्टियों के बीच दुष्प्रचार और खंडन अभियान का अखाड़ा बन गया है. वर्तमान पीढ़ी ने हिटलर के प्रचारमंत्री गेबेल्स का नाम भर सुना था, अब उनके नये अवतारों को झेल रही है.
भाजपाइयों के देशद्रोह के विपरीत राहुल गाँधी ने जनवाद के स्वघोषित आकाओं पर यह आरोप लगाया था कि इन देशों के शासक भारत में जनवाद के क्षरण पर इसलिए मौन रहते हैं कि इससे उनके व्यापारिक हित सधते हैं.
साथ ही उन्होंने विश्वव्यवस्था का विश्लेषण करते हुए यह भी स्पष्ट किया था कि वे चीन-रूस के उभरते खेमे के खिलाफ अमेरिका-यूरोप की खेमेबंदी के पक्ष में हैं यानि उन्होंने यह स्पष्ट करने की कोशिश की कि भारत में सत्ता परिवर्तन के बावजूद उसकी अर्थनीति और विदेश नीति वैसी ही बनी रहेगी जैसी भाजपा-आरएसएस के मोदी राज में है. इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं. भाजपा भी जब जब सत्ता में आयी उसने पिछली सरकारों की अर्थनीति और विदेश नीति में कोई मौलिक बदलाव नहीं लाया था.
भाजपा कांग्रेस के बीच मचे शोर गुल में एक महत्वपूर्ण बात दृश्य से ओझल हो गयी जिसपर देश की क्रान्तिकारी व जनवादी ताकतों को ध्यान देना चाहिए. कॉंग्रेस व भाजपा की नीतियों के विपरीत हमलोगों की नीति साम्राज्यवाद के मुकम्मल विरोध की होनी चाहिए और उनके प्रभुत्व के खिलाफ सभी उत्पीड़ित देशों को एकजुट करने का अभियान शुरू करना चाहिए. अपने देश की जनता के सामने यह बात साफ होनी चाहिए कि ये देश जनवाद के मामले में दोहरा मापदंड अपनाते हैं. अपने देश में वे पूंजीवादी जनवादी मूल्यों का न्यूनतम पालन तो करते हैं, लेकिन उत्पीड़ित देशों में उन मूल्यों की तिलांजलि देकर सिर्फ अपनी वित्तीय पूँजी की हिफाजत की चिंता करते हैं. यह काम वे जनवाद के मुखौटा में भी करते हैं और जरूरत पड़ने पर उसे उतार भी देते हैं.
फिलहाल देश में जनतंत्र (संविधान प्रदत्त सीमित अधिकारों) को रौंदने के सुनियोजित अभियान के खिलाफ लंदन के विभिन्न मंचों पर राहुल गाँधी ने जो भी वक्तव्य दिये हैं वे देश में जनतंत्र के क्षरण के खिलाफ विश्वजनमत तैयार करने का प्रयास है. भाजपा का झूठा प्रचार तंत्र दुनिया भर में गिरती छवि को लेकर बेचैन है और उसे ही छुपाने के लिए देशद्रोह का हौवा खड़ा कर रहा है. लेकिन अच्छी बात है कि इन कोशिशों के बावजूद उनकी छवि सुधर नहीं पा रही है. ठीक वैसे ही जैसे सरकारी तंत्र की चुप्पी के बावजूद मोदी के गोदी सेठ अडानी के आर्थिक साम्राज्य की लड़खड़ाहट थम नहीं पा रही है. देश के पूंजीवादी जनतंत्र पर जमे इन काले धब्बों को हटाने के लिए जरूरी है कि पूंजीवादी विपक्ष एकजुट होकर इनके खिलाफ जनमत तैयार करे.
इस अभियान में क्रांतिकारी जनवादी शक्तियों की भूमिका दोहरी होगी. तात्कालिक तौर पर 'भाजपा को एक भी वोट नहीं' अभियान की दिशा में काम करना चाहिए और दीर्घकालिक रूप से साम्राज्यवाद और उसके सभी गुर्गो के खिलाफ जनमत तैयार करना चाहिए. -कवीन्द्र.
उत्तरप्रदेश विस चुनाव में भाजपा की हार का राजनीतिक महत्त्व
(18th Feb. 2022)
- डॉ रामकवींद्र
उत्तरप्रदेश विस के दो दौर के चुनाव सम्पन्न हो गये Iअनुमान लगाया जा रहा है कि इन दोनों दौरों की 113 सीटों पर सपा-रालोद गठबंधन का पलड़ा भारी रहा है. किसान आंदोलन के केंद्र और राकेश टिकैत का प्रभाव क्षेत्र होने के नाते इस क्षेत्र में ऐसी ही उम्मीद भी की जा रही थी I तीसरे दौर से लेकर सातवें दौर के बारे में पहले संदेह की गुंजाईश बनी हुई थी, लेकिन अब ऐसे संकेत मिलने लगे हैं कि आगे भी भाजपा की स्थिति में कुछ ज्यादा सुधार होने के आसार नहीं हैं I अब तो यह उम्मीद भी जताई जाने लगी है कि यह चुनाव पश्चिम बंगाल की राह भी पकड़ सकता है I इस बदलाव के कारणों की समीक्षा तो 10 मार्च के बाद होगी, लेकिन फिलहाल यह चर्चा जरूरी है कि भाजपा की हार इतना महत्वपूर्ण क्यों हो गयी है!
इस सवाल के एक पक्ष का जवाब किसान आंदोलन के प्रति मोदी सरकार के विश्वासघाती रुझान से मिल चुका है I सरकार किसी भी तरह दिल्ली बॉर्डर से किसानों का धरना खत्म कराना चाहती थी, इसलिए उसने झूठ का सहारा लिया I 19 नवम्बर, 2021 को मोदी की घोषणा के बाद भी किसान धरना पर डटे रहे जिसके दबाव में संसद में कानून वापस लेना पड़ा. दूसरी ओर घोषणा के अगले दिन से ही भाजपा के अन्य नेता कहने लगे थे कि ऐसा कानून फिर से आ सकता है I ऐसा कहने वालों में केंद्रीय कृषि मंत्री तक शामिल हो गये थेI किसान धरना से तब उठे जब मांगों पर उन्हें लिखित आश्वासन मिला I इस आश्वासन पर 15 जनवरी तक सीमा रेखा की चेतावनी के बावजूद सरकार ने कोई सार्थक कदम नहीं उठाया. इसलिए किसान आंदोलन को विजय की मंजिल तक पहुँचाने के लिए जरूरी है कि केंद्र सरकार सत्ता से बाहर हो और उत्तरप्रदेश विस चुनाव में पराजय इस दिशा में शुरुआत हो सकती है I
इसके विपरीत bभाजपा और आरएसएस उत्तरप्रदेश को गुजरात के बाद हिंदुत्ववादी फासीवाद की दूसरी प्रयोगशाला बनाना चाहते हैं I इस काम में उन्हें देश के बड़े पूंजीपतियों का खुला समर्थन मिल रहा है I वे (पूँजीपति) जानते हैं कि संघ परिवार के पास बहुसंख्यक धर्म, जाति गाय, गोबर, गोमूत्र, खान-पान और लिबास तक के मामले हैं जिनके बल जनता को मूल मुद्दों से भटकाया व लड़ाया जा सकता है I इनके पास अनेक ऐसे संगठन हैं जो जनता को उत्तेजित कर इन कार्यक्रमों को पूरी निर्ममता से लागू करा सकते हैं I यानी फासिज्म के लिए जिन गैर संवैधानिक संगठनों की जरूरत पड़ती है उनकी पूरी फौज भाजपा के पास है I अन्य पार्टियों के पास जाति का हथियार तो है, लेकिन भाजपा की संगठित ताकत के समान कारगर नहीं है I
अब तक के अनुभवों से यह बात साफ हो जानी चाहिए कि जो पार्टी पूंजीपतियों के प्रति जितनी स्वामिभक्त होती है, वह उतनी ही जनविरोधी होती है. किसी जमाने में कांग्रेस सबसे ज्यादा स्वामिभक्त थी, अब वह जगह भाजपा ने ले ली है जिसे पूंजीपतियों की ओर से सबसे ज्यादा थैली उपलब्ध होती है और कांग्रेस हाशिये पर चली गयी है. यहीं से एक अन्य निष्कर्ष निकलता है कि केंद्र और राज्य में मजबूत पूंजीवादी सरकारें जनता पर ज्यादा दमन कर सकती हैं I मोदी सरकार के कामकाज झूठ-फरेब,धोखाधड़ी और दमन के सबसे ताजा उदाहरण हैं I इस दृष्टि से केंद्र और राज्य में अलग अलग पार्टियों के सरकारें जनता के लिए ज्यादा लाभप्रद हो सकती हैं और सबसे बड़े राज्य उत्तरप्रदेश में गैरभाजपा सरकार सबसे ज्यादा जनहित में होगी I
2017 विस चुनाव में भाजपा और संघ परिवार गैरयादव पिछड़ी जातियों और गैरजाटव दलितों को लालच देकर अपने पक्ष में मिलाने में कामयाब हो गये थे I पिछले पांच वर्षों के इन नेताओं के अनुभव ने उन्हें महसूस करा दिया कि हिंदुत्व की राजनीति में उन्हें दोयम दर्जे का व्यवहार ही मिल सकता हैI इससे ज्यादा कुछ नहीं. या उन्हें यह महसूस हो गया होगा कि यह इस बार यह नाव डूबने जा रही है I वैसे भी योगी सरकार यह आरोप झेलती रही है कि वह पिछड़ा, दलित, महिला और मुस्लिम विरोधी है I इसलिए चुनाव की घोषणा के साथ ही भाजपा से पिछड़े नेताओं की भगदड़ शुरू हो गयी थी जबकि 2017 में भगदड़ की दिशा उल्टी थी I यह उत्तरप्रदेश की जमीनी राजनीतिक स्थिति का प्रारंभिक संकेत था I
इन सभी कारणों से साफ है भाजपा की पराजय जनहित के साथ साथ राष्ट्रहित में भी है I इसलिए उत्तरप्रदेश की जनता से अपील है कि पिछले दो दौर के सिलसिले को जारी रखते हुए अन्य पांच दौरों में भाजपा की पराजय की गारंटी करें I
बीबीसी डॉक्यूमेंटरी का राजनीतिक महत्व
(28th Jan. 2023)
- डॉ रामकवींद्र
बीबीसी डॉक्यूमेंटरी देखने वालों की बढ़ती संख्या और उन्हें रोकने के पुलिस व प्रशासन के किस्म किस्म के प्रयासों के बीच संघर्ष, पूरे देश में फैलता जा रहा है.
इस संघर्ष में आरएसएस का छात्र संगठन ABVP सत्ता के दलाल की भूमिका में खड़ा है. जेएनयू और जामिया के छात्रों के संघर्ष की बीमारी दिल्ली और जादवपुर विश्वविद्यालय के बाद, कई अन्य विवि तक पहुँचने लगी है.
इस फिल्म के तथ्यों ने जनमानस को जितना झकझोरा है, उससे ज्यादा प्रभाव सरकार के विरोध का पड़ा है. लोगों में जिज्ञासा बढ़ने लगी है कि आखिर सरकार क्या छुपाना चाहती है!
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस डॉक्यूमेंटरी को प्रोपेगंडा बताकर खारिज कर दिया है.
'प्रोपेगंडा' शब्द आजकल काफी विवाद में आ गया है. कुछ दिनों पहले की बात है, फिल्म 'दी कश्मीर फाइल्स' की उन्होंने काफी तारीफ की थी और उसके निर्देशक और कलाकारों को, ऐतिहासिक तथ्यों को सही संदर्भ में पेश करने के लिए धन्यवाद तक दिया था.
साथ ही उन्होंने इस फिल्म को 'एकांगी और कट्टर हिंदुत्व का प्रोपेगंडा' कहकर इसका विरोध करने वालों को नसीहत दी थी कि जिन्हें नहीं पसंद है, वे न देखें या दूसरी फिल्म बना लें.
उनके इस सलाह के आधार पर पूछा जाना चाहिए कि 'आज उनकी सरकार बीबीसी डॉक्यूमेंटरी को रोकने के लिए इतना बेचैन क्यों है!
लेकिन उनकी उपर्युक्त दोनों बातें अलग अलग संदर्भ में हवा में उड़ गयी हैं.
गोवा फिल्म फेस्टिवल में जुरिस्ट लपिड ने 'दी कश्मीर फाइल्स' को वलगर प्रोपेगंडा घोषित कर दिया.
जनता के बीच इस विशेषज्ञ की राय प्रधानमंत्री की राय पर भारी पड़ी थी.
बीबीसी की डॉक्यूमेंटरी मामले में भी ऐसा ही हुआ है. लेकिन उल्टी दिशा में.
प्रधानमंत्री ने इसे प्रोपेगंडा घोषित किया जबकि देश के जानेमाने अखबार 'The Hindu' के पूर्व सम्पादक एन राम ने यू ट्यूब पर प्रसारित करण थापर के एक इंटरव्यू में इसे "तथ्यपरक रिसर्च पर आधारित संतुलित दस्तावेज" बताया.
दरअसल हमारे प्रधानमंत्री की दिक्कत है कि आज भी वे आरएसएस प्रचारक की संकीर्ण सोच से ऊपर उठ नहीं पा रहे हैं.
उनकी परेशानी है कि जिसे विशेषज्ञ गंभीर बताते हैं, उसे वे प्रोपेगंडा कहते हैं और जिसे वे गंभीर कहते हैं, उसे विशेषज्ञ प्रोपेगंडा कहकर खारिज कर देते हैं!
इस डॉक्यूमेंटरी को खारिज करने के पीछे मोदी सरकार के दो और तर्क हैं. पहला यह कि यह फिल्म भारत के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप की ब्रिटिश औपनिवेशिक मानसिकता को व्यक्त करती है और दूसरा
यह कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर यह डाक्यूमेंट्री प्रश्न खड़ा करती है.
ये दोनों आरोप अत्यंत हास्यसपद साबित हो चुके हैं.
औपनिवेशिक मानसिकता पर कानून के विशेषज्ञ और नेशनल लॉ स्कूल, बंगलुरु के पूर्व निर्देशक जी मोहन गोपाल का नजरिया ठीक इसके विपरीत है. उनकी राय में इस फिल्म पर रोक ही औपनिवेशिक मानसिकता है. उनका कहना है कि :
'जब हमारी सरकार अपनी आलोचना को सेंसर करती है और (आलोचक की) जुबान पर ताला लगा देती है, तब हमारा स्वतंत्रता आंदोलन हार जाता है और ब्रिटेन को गलत संकेत जाता है कि उसकी औपनिवेशिक नीति आज भी भारत पर राज कर रही है' (दि टेलीग्राफ' 24जनवरी, 2023, अनुवाद हमारा).
उनका मानना है कि यह डॉक्यूमेंटरी, गुजरात के मुख्यमंत्री या देश के प्रधानमंत्री की आलोचना पर केंद्रित नहीं, बल्कि नरेन्द्र मोदी के व्यक्तित्व की आलोचना पर केंद्रित है.
जहाँ तक देश की संप्रभुता का सवाल है तो किसी मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री की कोई आलोचना, संप्रभुता पर हमला नहीं है, क्योंकि देश की संप्रभुता किसी व्यक्ति व पद में निहित नहीं होती.
प्रधानमंत्री जी का विचार एक बार फिर गलत साबित हो गया.
सरकार और आरएसएस का यह नजरिया 'इंदिरा इज इंडिया' जैसा नारा याद दिला देता है.
सबको मालूम है कि संघ परिवार इस नारे के खिलाफ था और आज अघोषित रूप से 'मोदी इज इंडिया' लागू कर रहा है.
दरअसल, आज वस्तुस्थिति ही उलट गयी है. जिन्होंने तब फासिज्म विरोधी झंडा उठाया था, वे आज खुद फासिज्म के केंद्र में खड़े हैं और जिन्होंने उस समय फासिज्म थोपा था, उनके उत्तराधिकारी आज मोदी के फासिज्म के विरोध में कन्याकुमारी से कश्मीर तक आवाज उठा रहे हैं. इससे बहुत गंभीर सबक लेने की जरूरत है.
जहाँ तक सुप्रीम कोर्ट पर लांछन की बात है, तो यहाँ भी स्थिति उल्टी है.
सारा देश जानता है कि कॉलेजियम व्यवस्था के खिलाफ केंद्र सरकार के कानून मंत्री और देश के उपराष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ कैसे कैसे वक्तव्य दिये हैं और जनता में उसकी छवि धूमिल करने की कैसी कोशिश की है.
आज उसी सरकार के प्रतिनिधि अपने बचाव के लिए उसी सुप्रीम कोर्ट के पीछे छुपने की जगह तलाश रहे हैं.
इस विवाद में सरकार और संघ परिवार की बेचैनी, इस बात को लेकर है कि देश में फासीवाद के खतरों के खिलाफ पूंजीवादी जनवादी संघर्ष के जो अंकुए फुट रहे हैं, उसमें यह फिल्म कहीं खाद-पानी का काम न करने लगे!
हालांकि उपर्युक्त नारों का सहारा लेकर भाजपा और संघ परिवार, "कट्टर हिंदुत्ववादी अंधराष्ट्रवाद" का प्रचार प्रसार शुरू कर चुके हैं, जिसके खिलाफ व्यापक जन मोर्चा जरूरी है.
पिछले पचास वर्षों में "फासिज्म बनाम जनवाद" की भूमिका की जो अदलाबदली हुई है, उसका स्पष्ट मतलब यही है कि "मजदूर राज और समाजवाद" ही इन सभी बीमारियों का मुकम्मल और स्थायी इलाज हो सकता है.
दीर्घकालिक संघर्ष की नीति इसी आधार पर तय होनी चाहिए.
बीबीसी की डॉक्यूमेंटरी पर विवाद
(26th Jan. 2023)
- डॉ रामकवींद्र
बीबीसी की बहुचर्चित डॉक्यूमेंटरी ' इंडिया: दी मोदी क्वेश्चन' के दोनों भाग रिलीज हो गये. पहला 17 जनवरी को और दूसरा 24 को. वैसे तो यह दस्तावेज आम आदमी की पहुँच के बाहर है और मोदी सरकार ने यू ट्यूब और ट्वीटर पर इसके प्रसारण को रोक दिया है. इसलिए इस डॉक्यूमेंटरी का प्रभाव बहुत हद तक राजनीतिक हलकों तक सीमित रहेगा, लेकिन चर्चा बहुत व्यापक होगी.
गैरभाजपा शासित राज्यों में इस फिल्म का स्क्रीनिंग हुआ. केरल में वामपंथी और कॉग्रेसी कार्यकर्ताओं ने संघ परिवार के विरोध के बावजूद सार्वजनिक चौक चौराहों पर इसे दिखाया तो हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में भी इस डॉक्यूमेंटरी का प्रदर्शन हुआ.
इसके विपरीत दिल्ली में जेएनयू और जामिया के कैंपस फिर तनाव के केंद्र बने. सरकार ने भले ही इसके प्रदर्शन पर विधिवत रोक नहीं लगाई हो, लेकिन जेएनयू प्रशासन ने इसे देखने पर रोक लगाई, फिर भी छात्र देखने पर उतारू हो गये तो कैम्पस की लाइन काटी गयी और अपने-अपने लैपटॉप और मोबाइल में देख रहे छात्रों पर पत्थर बरसाए गये. आरोप है कि यह काम एबीवीपी ने किया.
इसीसे मिलता जुलता दृश्य जामिया मिलिया का भी रहा. यहाँ भी विवि प्रशासन ने प्रदर्शन पर रोक लगाई और जब छात्र अपनी बात पर डटे रहे तो विश्वविद्यालय का गेट बंद कर दिया गया और बड़े पैमाने पर पुलिस का बंदोबस्त कर दिया गया. कुछ छात्र गिरफ्तार भी किये गये हैं. भाजपा शासित राज्यों में फिर एक बार फिर पुलिस राज का तांडव देखने को मिला. लगता है, केंद्र सरकार और भाजपा- आरएसएस की जोड़ी यही चाहती भी थी, क्योंकि यह सब उसके ध्रुवीकरण के पक्ष में जाता है.
अब तक सोशल मीडिया में इस डॉक्यूमेंटरी पर जितनी चर्चा आयी है, उससे साफ है कि इसमें नया कुछ नहीं है जिसे भारत के लोगों ने देखा, जाना या भोगा नहीं है. चाहे वह नरेन्द्र मोदी के राजनीतिक उदगम स्रोत हो, गुजरात दंगा (2002) में मुख्यमंत्री की हैसियत से उनकी भूमिका को स्पष्ट करते हुए बाबू बजरंगी का इंटरव्यू हो या संजीव भट्ट जैसे पुलिस पदाधिकारियों और तीस्ता सितलवाड़ जैसी सामाजिक कार्यकर्ता की भूमिका और उनका उत्पीड़न हो.
फिर भी इस डॉक्यूमेंटरी का महत्व बहुत ज्यादा है. सबसे पहले तो यह मोदी सरकार के जनवादी चरित्र पर गंभीर प्रश्न खड़ा कर देती है कि वह अपने ऊपर किसी आरोप से जनता को अवगत नहीं होने देना चाहती और भारतीय मीडिया की अंधभक्ति उसकी इस इच्छा का साधन भी है और परिणाम भी. साथ ही वह भक्तों के इस दुष्प्रचार को तार तार कर देती है कि मोदी राज में दुनिया भर में भारत की प्रतिष्ठा का डंका बजा है. इस डॉक्यूमेंटरी ने भारतीय मीडिया को आईना दिखा दिया कि अगर इन भोंपुओं में थोड़ी भी लाज शरम रहती तो इस खुलासे का पूरा श्रेय बीबीसी को नहीं जाता. और अंततः इससे ब्रिटिश सरकार (और यूरोप की सभी साम्राज्यवादी सरकारें भी) कठघरे में नजर आने लगती हैं कि समय रहते उन्होंने कूटनीतिक दबाव का इस्तेमाल क्यों नहीं किया!
इस परिस्थिति में यू ट्यूब और ट्वीटर पर इस डॉक्यूमेंटरी के प्रदर्शन की भारत सरकार की मनाही के खिलाफ जनप्रतिवाद जायज है कि इस डॉक्यूमेंटरी के प्रदर्शन पर रोक आपातकाल की पुनरावृति है. दूसरी तरफ आज की परिस्थिति काफी तरल दिखाई पड़ती है. भाजपा और संघ निश्चय ही नरेन्द्र मोदी की प्रतिष्ठा को देश की प्रतिष्ठा से जोड़कर धार्मिक ध्रुवीकरण की कोशिश करेंगे, फिर इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि इस बढ़ते संकट के दौर में उनके दांव उल्टे भी पड़ सकते हैं. इन परिस्थितियों पर चर्चा बाद में.
राष्ट्र की अवधारणा सनातन नहीं है
(22th Jan. 2022)
- डॉ रामकवींद्र
राष्ट्र की अवधारणा सनातन नहीं है. यह शुद्धतः पूंजीवादी अवधारणा है. प्राचीन और मध्यकालीन भारत तो राजाओं की जागीर के रूप में टुकड़ों में बंटा हुआ था. यह एक कड़वा सच है कि भारत को एक आर्थिक और राजनीतिक इकाई में बाँधने का काम अंग्रेजों ने पूरा किया. इसके पीछे उनकी मंशा भारत और उसकी जनता का भला करना कतई नहीं था. यह देश के संसाधनों को लूटकर लंदन भेजने की उनकी योजना का बाईप्रोडक्ट था. मार्क्स की बात याद कर लीजिये, जो काम (भारत का एकीकरण) मुगलों की लोहे की तलवार नहीं कर सकी, वह अंग्रेजों की लोहे की रेलवे लाइन ने कर दिखाया. तो भी भारत एक राष्ट्र नहीं बना था, वह अंग्रेजों का उपनिवेश मात्र था. इसमें राष्ट्रवाद का तत्व 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम ने भर दिया. यहाँ भी मार्क्स दुनिया के पहले विचारक थे जिन्होंने अंग्रेजों के सिपाही विद्रोह के दुष्प्रचार को खारिज कर इसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम घोषित किया था. राष्ट्र निर्माण की शुरुआत यहीं से मानी जा सकती है.
पूंजीपति वर्ग के उदय के बाद इस संघर्ष ने नई दिशा पकड़ी. पहले दौर में उनका राजनीतिक संगठन कांग्रेस पेटिशन भेजकर सुधार की मांग करने वाले वकीलों और नेताओं का संगठन मात्र था. ब्रिटिश राज का कठपुतली संगठन. प्रथम विश्वयुद्ध के बाद भारतीय जनता में आजादी के लिए आकांक्षा बलवती हुई और जनता की इस आकांक्षा को पूँजीपति वर्ग की पार्टी कांग्रेस के नेतृत्व में ले जाने का काम गाँधी ने सफलतापूर्वक किया और कई उतार चढाव के बाद 1947 में समझौता के रास्ते से और कई अर्थो में अंग्रेजों की शर्तों पर देश आजाद हुआ जिसको लेकर तब से आज तक विवाद जारी है. फिर भी यह साफ है नए औपनिवेशिक तरीकों के साथ देश आधी गुलामी आधी आजादी की अवस्था में है. लेकिन साम्राज्यवादपरस्त पूँजीपति वर्ग के लिए भारत संप्रभुतासम्पन्न राष्ट्र बन चुका है और इसका मुख्य श्रेय निस्संदेह गाँधी को जाता है.
इसलिए यहाँ का पूँजीपति वर्ग अगर उन्हें राष्ट्रपिता की प्रतिष्ठा देता है तो अनुचित नहीं है, वे इसके हकदार थे. इस स्थिति को बदलने का एक ही रास्ता है कि भारत को पूरी तरह संप्रभुतासंपन्न समाजवादी राष्ट्र में बदल डालें यानी मजदूरों किसानों की सत्ता स्थापित कर लें.
महिला पहलवानों के यौन उत्पीड़न के आरोप : केंद्र सरकार पर बदनुमा दाग
(22nd Jan. 2023)
- डॉ रामकवींद्र
देश की जानीमानी महिला पहलवानों ने भारतीय कुश्ती संघ के अध्यक्ष के खिलाफ आवाज बुलंद किया है. जंतर मंतर पर तीन दिनों तक इनका धरना चला. इन पहलवानों ने संस्था में कई तरह की अनियमितता व भ्रष्टाचार के साथ ही यौन शोषण का आरोप भी लगाया है. फिलहाल जाँच के लिए एक कमिटी बनाने और जाँच के दौरान अध्यक्ष महोदय को काम काज से अलग रखने के आश्वासन के साथ धरना तो समाप्त हो गया है, लेकिन यह सवाल बना रह गया कि यह समस्या समाधान की दिशा में कदम साबित होगा या लीपापोती का प्रयास.
दरअसल भारतीय कुश्ती संघ के अध्यक्ष ब्रजभूषण शरण सिंह भाजपा के इतने ताकतवर सांसद हैं कि इनके खिलाफ बोलने के पहले प्रधानमंत्री जी को सोचना पड़ता है. इनकी ताकत का अंदाजा इसीसे लगाया जा सकता है कि वे खुद 6 बार से सांसद हैं, उनकी पत्नी भी सांसद हैं और पुत्र विधायक हैं. कहा जाता है कि वे चार से पांच लोक सभा सीटों को प्रभावित करने की हैसियत रखते हैं. कुश्ती संघ को चलाने का इनका तरीका इसीसे जाहिर होता है कि सोशल मीडिया में जारी एक वीडियो में वे एक पहलवान पर थप्पड़ चलाते नजर आते हैं.
अब तक उपर्युक्त आरोपों से वे सिर्फ इनकार करते रहे थे, लेकिन अब तो इसमें राजनीतिक नजरिया भी खोजने लगे हैं. उनका आरोप है कि मेरे बढ़ते कद के कारण राजनीतिक विरोधी साजिश रच रहे हैं और आरोप लगाने वाले पहलवान कांग्रेसी हैं. साथ ही वे दावा करते हैं कि संघ के 97% पहलवान उनके साथ हैं. उनका दावा सही है या नहीं यह तो दीगर बात है लेकिन इससे ये आरोप खत्म नहीं हो जाते. इन खिलाड़ियों की राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय ख्याति का अंदाजा इसी से लग जाता है कि कभी प्रधानमंत्री उनके साथ फोटो जारी करना गौरव की बात समझते थे. आज उनकी और उनके प्रतिनिधियों की चुप्पी और लीपापोती के प्रयास इस महत्व को कम नहीं कर पाएंगे. यह घटना भारत सरकार और उसके हिंदुत्ववादी "रामराज" पर कलंक का बहुत बड़ा धब्बा है जिसे धोया नहीं जा सकता.
इसका ताजा उदाहरण गुजरात जनसंहार (2002) पर फिर से उठा नया विवाद है. हमारे देश के प्रशासन और न्याय व्यवस्था ने इस जघन्य अपराध में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री (वर्तमान में देश के प्रधानमंत्री) को भले ही क्लीनचिट दे दिये हों, लेकिन विश्व जनमत का बड़ा हिस्सा आज भी उन्हें दोषी मानता है. बीबीसी के हाल के डॉक्यूमेंटरी ने एक बार फिर उनके चेहरे को दागदार घोषित कर दिया है. यह क्रम अनंत काल तक जारी रहेगा.
ऐसी स्थिति में हम इन उत्पीड़ित महिला पहलवानों के साथ एकजुटता दिखाते हुए मांग करते हैं कि कुश्ती संघ के अध्यक्ष के खिलाफ जाँच सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में हो. अगर उनपर आरोप साबित होते हैं तो उन्हें पद से हटाया जाय और उनपर मुकदमा चलाकर दंडित किया जाय. महिला उत्पीड़न की सूची में यह मोदी राज की एकलौती घटना नहीं हैं. अखबारी आरोप खुलासा करते हैं कि महिला उत्पीड़न के सबसे अधिक केस भाजपा सांसदों व विधायकों के खिलाफ दर्ज हैं. ऐसी स्थिति में हम देश की जनता को आगाह करते हैं कि इसका समाधान सिर्फ पुलिस और न्यायपालिका से नहीं हो सकता, इसलिए जनवादी और न्यायप्रिय जनता का दायित्व बनता है कि दुनियाभर में देश को कलंकित करने वाली इस भाजपा- आरएसएस सरकार को अपदस्थ करे और बेहतर भविष्य के लिए निरंतर संघर्ष जारी रखे.
फासीवाद के उभार का खतरा
(10th Jan. 2023)
- डॉ रामकवींद्र
8 जनवरी को ब्राज़ील की राजधानी में पूर्व राष्ट्रपति जायरे बोलसोनिरो के समर्थकों ने जो उत्पात मचाया, वह अत्यंत निंदनीय है. अमेरिका में डोनाल्ड ट्रम्प के समर्थक जनवरी 2021 में ऐसा ही प्रदर्शन कर चुके हैं. इन घटनाओं को इक्की-दुक्की और अपवादिक घटना के रूप में खारिज नहीं किया जा सकता. इसके विपरीत इनमें एक विश्वव्यापी रुझान की झांकी देखी जानी चाहिए.
वैसे तो ब्राज़ील की घटना अमेरिका की घटना की पुरावृति लगती है, लेकिन एक मामले में वह उससे आगे बढ़ी हुई भी नजर आती है. ब्राज़ील के दक्षिणपंथियों ने सेना से खुले हस्तक्षेप की मांग कर सत्ता अपने हाथ में लेने की अपील कर डाली. उन्होंने इस बात का इजहार कर दिया कि वामपंथी लूला डी सिल्वा की सरकार झेलने को तैयार नहीं हैं. फिलहाल अच्छी बात है कि ब्राज़ील की सेना ने यह दुस्साहस नहीं किया और पूंजीवादी जनतंत्र बचा रह गया. यहाँ यह भी स्पष्ट करना जरूरी है कि यह झगड़ा पूँजीवाद बनाम समाजवाद नहीं, बल्कि फासीवाद बनाम पूंजीवादी जनतंत्र है.
इसके आगे की परिघटना इस बात पर निर्भर करती है कि अमेरिका और ब्राज़ील के प्रशासन इन राजनीतिक अपराधियों पर कितनी सख्त कार्रवाई करते हैं. ऐसी उम्मीद जताई जा रही है कि जनवरी 2021 में अपने समर्थकों को उकसाने का दंड डोनाल्ड ट्रम्प को किसी न किसी रूप में भोगना पड़ेगा और लूला प्रशासन भी पूरी सख्ती से निबटेगा. फिलहाल यह सुकूनदायी संकेत है कि लगभग सभी देशों के शासन प्रमुखों ने इस घटना की निंदा की है, विरोध किया है या चिंता जताई है. इसमें हमारे प्रधानमंत्री भी शामिल हैं.
इन दोनों घटनाओं में एक और समानता हैं. दोनों को पूंजीपतियों के सबसे प्रतिक्रियवादी खेमे, धार्मिक संस्थाओं और नस्लभेद समर्थक शक्तियों का समर्थन हासिल है और इस गठजोड़ के विकास की संभावना पूरी दुनिया में दिखाई पड़ रही है. इस विकास के लिए विश्वपूँजीवाद का बढ़ता संकट और मजबूत कम्युनिस्ट आंदोलन का अभाव जिम्मेदार हैं. फासीवाद का उदय हमेशा याद दिलाता है कि पूँजीपति वर्ग सामान्य तरीके से शासन चलाने की स्थिति में नहीं है, तो मजदूर वर्ग भी सत्ता छीनने में सक्षम नहीं है.
पिछले तीन दशक से ऊपर की अवधि में साम्राज्यवाद ने श्रम की लूट की पूरी मनमानी की है और मजदूरों ने इसे झेला है. लेकिन अच्छी बात है कि इस तरह की मनमानी के खिलाफ अलग अलग ढंग के प्रतिरोध पूरी दुनिया में होने लगे हैं. ब्रिटेन, यूरोप और अमेरिका भी बढ़ते मजदूर आंदोलन के साक्षी बन रहे हैं. इन सभी आंदोलनों को मजदूर वर्ग के राजनीतिक दायरे में लाकर और उसे सही दिशा देकर इन प्रतिक्रियवादी उभारों का प्रतिकार किया जा सकता है. दूसरा कोई स्थायी विकल्प नहीं है.
पूंजीवादी विकास की भेंट चढ़ती जनता
(9th Jan. 2023)
- डॉ रामकवींद्र
देश का विकास हो रहा या विनाश - यह विवाद काफी लम्बे समय से चल रहा है और आगे भी लम्बे समय तक चलता रहेगा. 1991 में उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण कार्यक्रम के तहत अपनायी गयी नई आर्थिक नीति के बाद इसमें नया तेवर देखने को मिला. कल्याणकारी राज्य की अवधारणा मिट्टी में मिल गयी और साम्राज्यवाद-पूँजीवाद की लूट का नंगा नाच शुरू हुआ.
हालांकि शुरू से ही इस नीति के विरोध में आवाज उठती रही हैं. प्रारम्भ में इस नीति को नई गुलामी का दस्तावेज भी कहा गया था. इस विवाद से ध्यान हटाने के लिए पूंजीवादी राजनीतिक गलियारों में जाति और धर्म का विवाद जोर शोर से उठाया गया जिसमें गुलामी के दस्तावेज का विवाद डूब सा गया. आज का सच है कि धर्म की राजनीति (हिंदुत्व) ने जाति की राजनीति को लील लिया है और पूंजीपति वर्ग की सभी राजनीतिक पार्टियां धर्म की चादर ओढने को मजबूर हो गयी हैं. कल की धर्मनिरपेक्ष (वस्तुतः उदार हिंदूवादी) पार्टियां अब कट्टर हिंदुत्व की ओर बढ़ती नजर आ रही है. अंतर तरीका और डिग्री का है.
जो भी हो जनविरोधी विकास का चक्का रुका नहीं. प्रारम्भिक दौर में इसके शिकार तटीय क्षेत्र और जंगल पहाड़ के आदिवासी लोग हुए. उस समय तक अन्य राज्यों और क्षेत्रों के लोग विकास नीति का जाप कर रहे थे. अब उसने अपने आगोश में सारे देश को ले लिया है. 2919-20 में दिल्ली बॉर्डर पर डेरा डाले किसानों ने अश्वमेघ यज्ञ के घोड़े की लगाम तो जरूर पकड़ी, लेकिन उसे रोक नहीं पाये. किसानों की लड़ाई आज भी जारी है. इसी क्रम में खिरियाबाग (आजमगढ़) में हवाई अड्डा के विस्तार के खिलाफ किसानों का संघर्ष जारी है.
फिलहाल इस जंग में संघ परिवार ने मैदान मार लिया है. फलस्वरूप 2914 में फिर एक नया मोड़ आया जिसमें संविधान पर खतरा मंडराने लगा है. देश को कट्टर हिन्दू राष्ट्र बनाने का षड्यंत्र खुलकर धरातल पर आ गया है. यह कदम विकास (वस्तुतः मजदूरों-किसानों व उत्पीड़ित जनता का विनाश) के साथ साथ देश में जारी आधे-अधूरे पूंजीवादी जनतंत्र को भी अपने खूनी जबड़ों में लेने की दिशा में कदम बढ़ाने लगा है.
उत्तराखंड के जोशी मठ और हल्द्वानी की घटनाएं इसी अर्थनीति और राजनीति की अनिवार्य उपज हैं. दोनों में समानता है कि दोनों "विकास" की भेंट चढ़ रहे हैं. जोशी मठ एनटीपीसी और बॉर्डर रोड निर्माण की भेंट चढ़ रहा है तो हल्द्वानी रेलवे के विस्तार की. लेकिन दोनों में असमानता भी है. जोशी मठ में पीड़ित लोग बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय के हैं. हो सकता है कि उनमें बहुतेरे भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाये जाने के पक्षधर भी हों, लेकिन वे खुद इस विकास के खूनी जबड़े में समाते ही कांप उठे हैं. वहीं हल्द्वानी (बनफूलपुरा) के उत्पीड़ित 4000 परिवार अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय के हैं जो भाजपा-आरएसएस की केंद्र और राज्य सरकारों की भेदभाव नीति के निशाने पर हैं.
सरकार की इस नीति के सामने नतमस्तक होते हुए उत्तराखंड हाई कोर्ट ने जमीन पर इन परिवारों का नाजायज कब्जा घोषित कर उन्हें जबरन हटाने का आदेश पारित कर दिया था. ऐसा लगा कि इस जमीन पर वर्षों और पीढ़ियों से रह रहे लोग महज कूड़ा कचरा जैसे हैं जिन्हें बाहर फेंककर जमीन साफ कर दी जाय. यह फैसला आदमखोर पूँजीवादी समाज और उसकी न्याय व्यवस्था पर बदनुमा दाग है जिसे तात्कालिक तौर पर सुप्रीम कोर्ट ने धोने की कोशिश की है. लेकिन इस मामले ने कोर्ट के सामने विस्थापन और पुनर्वास से जुड़ा नीतिगत सवाल खड़ा कर दिया है. उसी तरह जोशीमठ के लोगों के घरों में उभरते दरार भी विकास के नाम पर पर्यावरण की बर्बादी के सवाल को भी उसी शिद्दत से हल करने की मांग करते हैं. - कवीन्द्र (क्रमशः)
स्तालिन के व्यक्तित्व और कृतित्व से सबक लेकर भावी क्रांति की राह खोजें
(21st Dec. 2022)
- डॉ रामकवींद्र
आज (21 दिसम्बर) विश्व सर्वहारा के महान नेता जोसफ विसारियोनोवीच स्तालिन का जन्मदिन है. वैसे तो उनके जन्मदिन के संदेश का सिलसिला तीन-चार दिनों से चल रहा है, लेकिन उसका सबसे माकूल दिवस आज ही है.
स्तालिन मानव इतिहास के उन विरले व्यक्तियों में एक थे जिन्होंने अपने समकालीन इतिहास पर अपने व्यक्तित्व की अमिट छाप छोड़ी और उसे नयी दिशा दी. अन्ना लुई स्ट्रांग ने ठीक ही लिखा है कि उनका काल 'स्तालिन युग' के रूप में जाना जायेगा. इसलिए हमारे लिए उचित है कि अत्यंत संक्षेप में हम उनकी उपलब्धियों को याद कर लें.
रूसी क्रांति की अवधि में लेनिन के प्रवास के दौरान बोल्शेविक पार्टी के मुख्य संगठनकर्ता की भूमिका स्तालिन ने ही निभाई थी. यही कारण है कि लेनिन की मृत्यु के बाद पार्टी की बागडोर स्वाभाविक रूप से उनके हाथों में आ गयी.
स्तालिन का सबसे बड़ा योगदान यही माना जाना चाहिए कि उन्होंने लेनिनवाद को पारिभाषित व स्थापित किया. लेनिनवाद साम्राज्यवाद और सर्वहारा क्रांति के युग का मार्क्सवाद है - यह परिभाषा स्तालिन की ही देन है.
उन्होंने काफी लम्बे समय तक सोवियत संघ की सत्ता की बागडोर संभाली और सर्वहारा अधिनायकत्व का मॉडल पेश किया. अब तक का सबसे सफल और सबसे मजबूत मॉडल.
कोमिंटर्न के माध्यम से उपनिवेशों, अर्धउपनिवेशों और निर्भरशील देशों के मुक्तिसंघर्ष के दिशा निर्देश में उन्होंने अहम भूमिका निभाई. खासकर चीन की क्रांति में.
फासीवाद का विकास उनके जीवन में सबसे खतरनाक परिघटना थी. इसके खिलाफ 'जनमोर्चा' के गठन के सिद्धांत के निर्माण में उनका योगदान उल्लेखनीय रहा.
दूसरे विश्वयुद्ध में राजनीतिक और सैन्य नेतृत्व में उन्होंने बेमिसाल साहस और कौशल का परिचय दिया और फासीवाद के फन कुचल दिये. इससे न सिर्फ सोवियत संघ बल्कि यूरोप और गुलाम देशों के मुक्तिसंघर्ष को भी अनगिनत लाभ हुए. हम कह सकते हैं कि भारत जैसे देशों की आजादी में स्तालिन का बहुत बड़ा योगदान है.
इन योगदानों के लिए वे सदा सर्वदा याद किये जायेंगे. आइए, हम उनके व्यक्तित्व और कृतित्व से सबक लें और भावी क्रांति की राह खोजें. यही उनको सच्ची श्रद्धांजलि है.
किसान आंदोलन पर प्रस्ताव
(11th Dec. 2022)
- डॉ रामकवींद्र
(10 दिसम्बर को मानवाधिकार दिवस पर जमशेदपुर में आयोजित गोष्ठी में पारित दो प्रस्ताव )
(1)
केंद्र सरकार के तीन कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों का आंदोलन देशव्यापी हो गया है. उसकी अनुगूंज दुनिया भर में महसूस की जाने लगी लगी है. ये कानून हैं - कृषि व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सहुलियत) कानून, कृषक (सशक्तिकरण व संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार कानून, और आवश्यक वस्तु (संशोधन) कानून. हालांकि इन कानूनों के नामकरण से ऐसा बोध होता है कि ये किसानों के हित में हैं लेकिन प्रावधानों की दृष्टि से ये किसान विरोधी हैं. वस्तुतः ये तीनों कानून उत्पादन से लेकर वितरण तक समूची कृषि अर्थव्यवस्था को देशी विदेशी बड़ी पूँजी के मालिकों के हाथों में गिरवी रख देने के इरादे से लाये गये हैं जिसका ग्रामीण और शहरी गरीब जनता पर बहुत घातक प्रभाव पड़ेगा. इसलिए इस मामले को सिर्फ किसान हित के नजरिए से देखने के बदले समस्त शोषित पीड़ित जनता के हित से जोड़कर देखना उचित होगा, अन्यथा हम सही मूल्यांकन कर सही सोच नहीं बना पाएंगे.
उदारीकरण के दौर में कृषि के प्रति सरकारों का रवैया हमेशा सौतेला और संदिग्ध रहा है. इसके पीछे दो उद्देश्य रहे हैं, सभी कल्याणकारी योजनाओं को एक एक कर खत्म करना, कृषि व्यवस्था को पूरी तरह बाजार और उसके नियंता पूंजीपतियों के अधीन कर देना. पिछले दिनों इस मंशा के खिलाफ देशव्यापी आंदोलन के फलस्वरूप किसानों ने भूमि अधिग्रहण कानून 2013 पारित करवाया था. ध्यान देने की बात है कि मोदी सरकार इस कानून में भी सेंधमारी की कोशिश करती रही, लेकिन सफल नहीं हो पायी. इस कानून की कहानी भी उतनी ही संदिग्ध है.
सबसे पहले इन कानूनों को कोरोना महामारी की चरम अवस्था में 05 जून 2020 को अध्यादेश के रुप में लाया गया. उस अवधि में सरकार मजदूर विरोधी अध्यादेश जारी कर "आपदा को अवसर" बनाने के अपने जनविरोधी चरित्र का नमूना पेश कर रही थी. उसे लगा था कि महामारी से डरे लोग प्रतिरोध खड़ा नहीं कर पाएंगे. उसके बाद संसद के शीतकालीन सत्र में इन्हें लोकसभा और राज्य सभा में क्रमशः 17और 20 सितंबर को पेशकर पारित कराया गया. राज्य सभा में इसके लिए जितना घिनौना हथकंडा अपनाया गया, उसकी मिसाल संसदीय इतिहास में शायद ही मिल पायेगी. उदारीकरण दौर की नीतियों और वर्तमान सरकार की साजिशाना हरकतों से किसानों और सभी जनतांत्रिक शक्तियों के मन में उसके खिलाफ अविश्वास की गहरी भावना पैदा कर दी है.
इन कानूनों के अस्तित्व में आने के बाद से ही इनके खिलाफ किसान आंदोलन की शुरुआत होने लगी थी जिसके केंद्र पंजाब और हरियाणा जैसे कृषि प्रधान राज्य बने थे. पंजाब के किसानों का रेल रोको आंदोलन इस बीच चर्चा में तो आ गया लेकिन केंद्र सरकार पर उसका कोई असर नहीं दिखा. उल्टे, वह पर प्रचार करने में व्यस्त रही कि सिर्फ पंजाब के किसान विपक्ष की राजनीति से प्रेरित होकर आंदोलन कर रहे हैं. दूसरी सच्चाई यह है कि सरकार हर साल न्यूनतम समर्थन मूल्य तो घोषित करती है लेकिन उसका लाभ मुख्यतः पंजाब और हरियाणा के किसान ही उठा पाते हैं. इसलिए उनका पहले आंदोलन में उतरना लाजिमी है. दूसरी बात यह कि पिछड़े राज्यों में किसानों का बड़ा हिस्सा सरप्लस अनाज पैदा भी नहीं करता. झारखण्ड में तो कुछ इलाकों को छोड़कर यहां के किसान अनाज नहीं बेच पाते, इसलिए न्यूनतम समर्थन मूल्य के प्रति उदासीन रहते हैं. लेकिन यहां के गरीब जनवितरण प्रणाली के अनाज पर निर्भर रहते हैं. इन कानूनों का दूरगामी प्रभाव इस व्यवस्था को खतरे में डाल देगा, इस आशंका को नकारा नहीं जा सकता.
इसी पृष्ठभूमि में इस आंदोलन को और इसके प्रति सरकार के रुख को समझा जा सकता है. पंजाब और हरियाणा के किसान संगठनों ने 26 नवंबर (संविधान दिवस) को दिल्ली पहुंचने के लिए अपना अभियान शुरू किया था. हरियाणा की भाजपा सरकार और केंद्र सरकार की दिल्ली पुलिस ने गोली चलाने के अलावा किसान मार्च पर दमन के सारे हथकंडे अपना लिये. अब तक चोट और पानी की बौछार की ठंड से तीन आंदोलनकारी किसानों की मौत भी हो चुकी है. इसके बावजूद अपने लौह इरादे के साथ किसान दिल्ली बॉर्डर पहुंचे और डटे हैं. फलस्वरूप लगभग दो सप्ताह से देश की राजधानी पंजाब, हरियाणा, उत्तरप्रदेश और उत्तराखंड के किसानों से घिरी हुई है. 8दिसम्बर के सफल बंद ने तो साबित कर दिया कि इनके संघर्ष को देशव्यापी जनसमर्थन हासिल है. इस शक्ति प्रदर्शन के साथ आंदोलनकारी किसान इन कानूनों को रद्द करने की अपनी मांग पर अडिग हैं. दूसरी ओर सरकार इनमें संशोधन के लिए तो तैयार है, लेकिन रद्द न करने की जिद्द पर अड़ी है.
यह सच है कि यह आंदोलन कुलकों और अमीर किसानों के नेतृत्व में चल रहा है. इसके बावजूद उनका मांगपत्र कृषि क्षेत्र और उसपर निर्भर समस्त लोगों के हित साध रहा है. पीडीएस व्यवस्था को जारी रखने की मांग इसका ज्वलंत उदाहरण है. इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए मानवाधिकार दिवस पर आयोजित यह संगोष्ठी इस किसान आंदोलन का समर्थन करती है, सरकार के दमनकारी कदमों की निंदा करती है और मांग करती है कि वह अपने तीनों जनविरोधी कानूनों को रद्द करे.
(2)
दमनकारी कानूनों का प्रतिवाद
राज्यसत्ता और जनतांत्रिक अधिकारों के बीच अन्तर्विरोध अमूमन हर जगह , हर समय देखने को मिलता है । स्वतंत्र भारत में भी जब मौलिक अधिकारों और स्वतंत्रताओं को जगह मिली थी , जनविरोधी दमनकारी कानून वजूद और अमल में थे ।
जब भी बड़े जनांदोलन उभरे ,उन्हें दबाने के लिए पुराने दमनकारी कानूनों का अनुचित अंधाधुध इस्तेमाल हुआ , नये ज्यादा अन्यायपूर्ण कानून बनाये गये ।
इन दिनों केन्द्र सरकार और उनके पदचिन्हों पर चलनेवाली प्रांतीय भाजपाई सरकारें नागरिकों को अधिकारविहीन , आतंकित और प्रताड़ित करने में जुटी हुई हैं । इसके खिलाफ मुखर इंसाफ की निडर शख्सियतों को आतंकी , उग्रवादी , देशविरोधी ,षडयंत्रकारी बताकर उन पर झूठे मनगढ़ंत आरोप मढ़कर सालो साल बिना सुनवाई या बेहद धीमी सुनवाई जेलबन्द किया जा रहा है । राजद्रोह कानून , राष्ट्रीय सुरक्षा कानून और इनसे भी ज्यादा यु ए पी ए कानून का उपयोग इस दमन अभियान के लिए हो रहा है । यु ए पी ए में तो ऐसे संशोधन किये गये हैं ,जो न्याय की सर्वमान्य प्रक्रियाओं का भी उल्लंघन करते हैं । बिना चार्जशीट के भी किसी को अनिश्चित काल तक कैद रखने को कानूनी बनाया जा रहा है । एन आई ए इस फासीवादी दमन की मशीनरी के रूप में काम कर रही है ।और न्यायालय तथा जेल प्रशासन एन आई ए की मंशा के आगे झुके दिख रहे हैं ।
इसे मंजूर नहीं किया जा सकता । नागरिक को सरकार का गुलाम नहीं बनने दिया जा सकता । लोकतंत्र को हर कीमत पर बचाना है ।
हम सब लोकतंत्र के प्रति संकल्पबद्ध नागरिक के रूप में माँग करते हैं कि राजद्रोह कानून ,एन एस ए , यु ए पी ए कानून रद्द किया जाय । इनके तहत कैद सारे बेगुनाह , बेचार्जशीट लोगों को रिहा किया जाय । दमनकारी , षडयंत्रपूर्ण , अतिकेन्द्रित एन आई ए पर न्यायिक अंकुश लगाया जाय या इसे खत्म किया जाय ।
किसान संगठनों का ट्रैक्टर परेड
- डॉ रामकवींद्र
26 जनवरी को पूर्व घोषित किसान संगठनों का ट्रैक्टर परेड सम्पन्न हो गया. निश्चित तौर पर इस कार्यक्रम ने गणतंत्र दिवस को ऐतिहासिक और अद्भुत बना दिया. लेकिन इसके साथ ही एक उकसावेबाज दीप सिद्धू की एक हरकत ने सरकार, संघ परिवार और गोदी मीडिया को आंदोलन को बदनाम करने का हथकंडा थमा दिया. दरअसल, यह इन्हीं शक्तियों द्वारा प्रायोजित भी था. उसके बाद तो इन शक्तियों ने आंदोलन को बदनाम करने की मुहीम भी छेड़ दी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक 'मन की बात' के बहाने इस मुहीम में शामिल हुए बिना नहीं रह सके. उन्होंने दो बातों का जिक्र किया: सरकार कृषि के विकास और आधुनिकीकरण के लिए कृतसंकल्प है और 26जनवरी को तिरंगे के अपमान से देश दुखी है. इनमें पहली बात तो सरकार की नीति से जुड़ी है, जिसकी व्याख्या वर्ग हित के अनुसार अलग अलग हो सकती है, लेकिन दूसरी बात तो बिल्कुल गलत है. दरअसल, उस दिन सब गड़बड़ी के बावजूद तिरंगे का अपमान हुआ ही नहीं था. वह अपनी जगह सुरक्षित था. उसके नीचे व बगल में 'निशान साहिब' का झंडा फहराकर उस सत्ता केंद्र पर शासक वर्ग के राजनीतिक विशेषाधिकार का अतिक्रमण हुआ था.
इससे प्रधानमंत्री का दुखी होना स्वाभाविक है. लेकिन देश इससे दुखी नहीं है. जनता यह जानकर परेशान है कि ऐसा करने वाला व्यक्ति भाजपा से जुडा महत्वपूर्ण व्यक्ति है और प्रधान मंत्री व गृहमंत्री के साथ फोटो खिंचवाने की हैसियत रखता है. लोगों की चिंता की दूसरी बात है कि हमारे देश में सत्ता के सर्वोच्च कार्यकारी आसन पर बैठे व्यक्ति ऐसे छिछोरे पाल कर रखते है और उनकी सरकार ऐसे कुकृत्य का आरोप आंदोलकारी किसानों पर मढ़कर उन्हें परेशान करती है. गणतंत्र दिवस के बाद यह किसान आंदोलन पर दमन का पहला अध्याय था.
इस अभियान का दूसरा अध्याय भी तुरंत सामने आ गया. थोड़े से गुंडों के दल दिल्ली पुलिस का सहयोग लेकर तीनों धरनास्थलों पर धमक गये, जहाँ ये लोग किसानों पर सड़क खाली करने का दबाव देने लगे. इसके लिए ईंट, पत्थर बरसाने और लाठी चलाने का काम भी हुआ. यह सब हुआ स्थानीय लोगों के नाम पर और पुलिस के सक्रिय या निष्क्रिय सहयोग से. हद तो तब हो गयी जब लोनी के विधायक नन्दकिशोर गुर्जर पुलिस और अपने दल बल के साथ गाजीपुर बॉर्डर पर पहुँचे और खाली करने का दबाव बनाने लगे. गृहमंत्री के नाम उनका पत्र भी मीडिया में आ चुका है जिसमें उन्होंने अपने बल पर गाजीपुर बॉर्डर खाली कराने की बात की थी. उम्मीद की जा सकती है कि गृहमंत्री का गुप्त आशीर्वाद भी उन्हें मिला होगा. यह भाजपा-संघ सरकार और दिल्ली पुलिस का जाँचा परखा हथकंडा है, जिसकी आजमाइश सीएए विरोधी आंदोलन को तोड़ने और दिल्ली दंगा-2020 में की जा चुकी है.
अच्छी बात है कि किसान आंदोलन की ताकत के सामने जाँचा परखा यह तिकड़म फेल हो गया. किसान नेताओं ने बड़े धैर्य का परिचय दिया. गाजीपुर बॉर्डर पर राकेश टिकैत के आंसू ने पीछे हटते किसान जत्थों में फिर से लौटने की शक्ति भर दी. उसके बाद तो जाटलैंड क्षेत्र में खाप पंचायतों का सिलसिला शुरू हो गया और गाजीपुर बॉर्डर पहले से भी ज्यादा आबाद हो गया. कई खापों ने तों नन्दकिशोर गुर्जर के अपने गांव में प्रवेश पर भी रोक लगा दी है. कुछ ऐसी ही स्थिति सिंघू और टिकरी बॉर्डर पर हुई. तथाकथित स्थानीयों के हमले के बाद स्थानीय किसानों का समर्थन बढ़ गया और इससे आतंकित हरियाणा सरकार ने बॉर्डर सहित 17 जिलों में नेटवर्क सेवा बंद कर दी है. जो भाजपाई सरकारें आंदोलन को भीतर से तोड़ने का खेल खेल रही थीं, अब जनता के बीच बेआबरू होकर फिर से ज्यादा आक्रामक हो गयी हैं.
इस दमन के बावजूद आंदोलन के पक्ष में राजनीतिक गोलबंदी बढ़ गयी है. लगभग सभी पूंजीवादी दल खुलकर आंदोलन के पक्ष में खड़े होने लगे. खासकर गाजीपुर बॉर्डर इन दलों के नेताओं का तीर्थस्थल जैसा बन गया. यह समर्थन दोधारी तलवार की तरह है. सत्ता में रहते हुए इन दलों ने संविदा खेती जैसे कदम का समर्थक और अपने ढंग से इसे आगे बढ़ाने का काम भी किया है. ऐसी स्थिति में फिलहाल इनका समर्थन लेने के बावजूद इनसे सतर्क रहने की नीति अपनानी होगी. दूसरी ओर संसदीय राजनीति के इस दबाव में प्रधानमंत्री की जुबान खुल गयी. दूसरी ओर किसान नेता टिकैत ने भी उनकी मर्यादा रखने की बात कबूल की है. इससे किसी तरह के निष्कर्ष पर पहुंचना जल्दबाजी होगी और संयुक्त मोर्चा के निर्णय और अगली वार्ता का इंतजार बेहतर होगा. आगे की संभावित राजनितिक चुनौती की चर्चा बाद में.
पतनोन्मुख पूंजीवादी राजनीति
(10th Dec. 2022)
- डॉ रामकवींद्र
07 और 08 दिसम्बर को घोषित तीन राज्यों के चुनाव परिणाम से भाजपा, कांग्रेस तथा आम आदमी पार्टी (आप) खुशी और गम दोनों का माहौल है. साथ ही इन सभी पार्टियों के लिए चिंता के संदेश भी हैं.
पूंजीवादी मीडिया (रवीश के शब्दों में गोदी मीडिया) उतनी गहराई में जाने के बजाय गुजरात विधानसभा चुनाव के नतीजों का हवाला देकर प्रधानमंत्री मोदी की प्रशंसा में लोट-पोट हो रहा है. इसी बहाने वह हिमाचल प्रदेश विस तथा एमसीडी चुनाव में भाजपा की हार पर पर्दा डाल रहा है. निश्चय ही गुजरात में भाजपा की ऐतिहासिक जीत का श्रेय नरेन्द्र मोदी को जाना चाहिए, तो इसी मापदंड पर हिमाचल प्रदेश और दिल्ली नगर निगम में भाजपा की हार का ठीकरा भी उन्हीं के माथे फुटना चाहिए.
लेकिन बात उल्टी है. गोदी मीडिया ने प्रधानमंत्री को आलोचना से परे मानकर उन्हें देवत्व प्रदान कर दिया है और उनपर सवाल खड़ा करने वाले पत्रकारों को एक एक कर मीडिया से बाहर का रास्ता दिखा दिया है. इन चुनावों में भी गुजरात की जीत का तमगा तो प्रधानमंत्री को दिया जा रहा है लेकिन हिमाचल चुनाव की हार को लेकर पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा और केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर के पर कतरने की खबरें आने लगी हैं.
'आप' ने एमसीडी पर 15 वर्षों से भाजपा का कब्जा खत्म कर अपना बर्चस्व कायम कर लिया है. यह स्थिति तब हुई है, जब चुनाव प्रधानमंत्री के चेहरे पर लड़ा गया था, उनकी लाज बचाने के लिए गृह मंत्री, लगभग एक दर्जन केंद्रीय मंत्री, चार राज्यों के मुख्यमंत्री और दिल्ली के सारे सांसद सक्रिय थे. निचले स्तर के कार्यकर्ताओं की तो कोई गिनती ही नहीं थी. इसके बावजूद 'आप' 250 में 135 सीटें जीतने में सफल रही जबकि भाजपा को 104 पर संतोष करना पड़ा. इस संघर्ष में सबसे बुरी स्थिति कांग्रेस की रही. पूरी चुनावी प्रक्रिया में उसकी उपस्थिति नगण्य रही थी और वही हाल सीटों का भी रहा.
इस परिणाम से केजरीवाल का खुश होना बिल्कुल जायज है. भाजपा का आलम यह था कि अपने 15 सालों के काम बताने के बजाय वह 'आप' नेताओं के भ्रष्टाचार और ऐय्याशी का वीडियो जारी करने में व्यस्त थी. यह पूंजीवादी जनतंत्र (खासकर भाजपा की राजनीति) के पतन और खोखलापन का जीता जागता नमूना है. इस चुनाव में दिल्ली की जनता का संदेश है कि उसे 'आप'का भ्रष्टाचार भाजपाई अत्याचार की तुलना में ज्यादा पसंद है. ध्यान देने की बात है कि भ्रष्टाचार और लोकपाल के सवाल पर लोकप्रिय बनी पार्टी अब इन बातों पर जोर देना बंद कर चुकी है.
इस जीत हार का खेल यहीं खत्म नहीं होता. भाजपा आईटी सेल के प्रमुख अमित मालवीय ने आम आदमी पार्टी को चंडीगढ़ निगम की याद दिला दी है जहाँ उसके पार्षदों की संख्या तो ज्यादा है, लेकिन मेयर भाजपा का है. इशारा बहुत साफ है और इसे भाँपते हुए मनीष सिसौदिया ने भी कहना शुरू कर दिया है कि हमारे पार्षदों के पास भाजपा नेताओं के फोन आने लगे हैं. यही है पूंजीवादी जनतंत्र में जनता के वोट की कीमत.
आम आदमी पार्टी ने विधानसभा चुनाव 2020 में जितना मत प्रतिशत हासिल किया था, उस तुलना आज वह पिछड़ती नजर आ रही है. इस चुनाव में उसे 42.1% वोट मिले हैं जो विस चुनाव में उसे 11% कम हैं, वहीं भाजपा को 2020 विस चुनाव की तुलना में.6%ज्यादा (38.5%) वोट मिले और कांग्रेस का मत प्रतिशत भी 2020 की तुलना में बढ़ा है.
इसका कारण आम आदमी पार्टी के बढ़ते हिंदुत्व प्रेम में खोजा जा सकता है. आज उसकी प्रतिष्ठा संघ परिवार की बी टीम के रूप में बढ़ रही है तो दूसरी ओर अल्पसंख्यक समुदाय और जनवादी खेमे में घटने भी लगी है.
आम आदमी पार्टी के पतन की यह यात्रा 2019 में जम्मू और कश्मीर के विशेष दर्जा छीनने और दो भागों में बाँटने के प्रश्न पर भाजपा सरकार के समर्थन से शुरू हुई थी. उस समय आश्चर्य भी हुआ था कि जो पार्टी दिल्ली को पूर्ण राज्य के दर्जा के लिए संघर्षरत है, वह दूसरे राज्य के बारे में उलटा निर्णय कैसे ले सकती है!
इसके बाद यह सिलसिला विस चुनाव (2020) में जय श्रीराम की जगह बजरंगबली की जयकार तक पहुंचा और शाहीन बाग आंदोलन, दिल्ली दंगा पर इन्हें तटस्थ बने रहने को मजबूर कर दिया. लेकिन जहांगीरपुरी की घटना में बांग्लादेशी और रोहिंग्या मुसलमानों के हाथ होने की इनकी घोषणा से इनकी हिंदुत्ववादी पक्षधरता साफ हो गयी और हाल के दिनों में भारत के करेंसी नोट पर लक्ष्मी और गणेश की तस्वीर लगाने की मांग ने इनके चेहरे के सारे नकाब फाड़ दिये.
एक तरफ कट्टर हिंदुत्ववादी राजनीति की बी टीम के रूप में इनका अखिल भारतीय विस्तार हो रहा है तो नीचे से जनाधार बिखरने भी लगा है. इसका मतलब है कि भ्रष्टाचार विरोधी चमक दमक के साथ उभरी यह पार्टी दस सालों में राष्ट्रीय पार्टी बन चुकी है तो उसकी छवि भी अन्य पूंजीवादी राष्ट्रीय पार्टियों की तरह जनविरोधी होने लगी है. यह है इस चुनाव का महत्वपूर्ण संदेश.
किसान संघर्ष के समर्थन में
(2nd Dec. 2020)
- डॉ रामकवींद्र
किसानों का आंदोलन रोज एक नई ऊंचाई छू रहा है. वैसे तो केंद्र सरकार और भाजपा की राज्य सरकारें गोली चलवाने के अतिरिक्त इस आंदोलन पर दमन के सारे हथकंडे अपना चुकी हैं. दूसरी ओर इस पार्टी के नेता इसे बदनाम करने के सारे उपाय कर रहे हैं. इन सबके बावजूद पंजाब व हरियाणा के किसान संघर्ष पथ पर बढ़ते हुए दिल्ली बॉर्डर पर पहुंच चुके हैं और सरकार को बिना शर्त समझौता के लिए बाध्य कर चुके हैं. अब ऐसा लगता है कि सरकार इन्हें कमिटी और मीटिंग में उलझा कर थका देना चाहती है. लेकिन वे सतर्क हैं और निबटने में सक्षम भी.
अच्छी बात है कि देश से विदेश तक किसानों के समर्थन में आवाज गूंजने लगी है. ब्रिटेन के तीन लेबर एमपी इनके पक्ष में बोल चुके हैं. कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रुडू भी इनका समर्थन कर चुके हैं.
देश में उत्तर प्रदेश के किसान मोर्चा खोल चुके हैं, महाराष्ट्र के किसान 3 दिसम्बर तक कोई हल न निकलने की हालत में दिल्ली मार्च की घोषणा कर चुके हैं और कर्नाटक के किसान 7दिसम्बर को वहां की विधानसभा को घेरने की तैयारी कर रहे हैं. देश के कई सेलेब्रिटी इनका समर्थन कर चुके के जिसमें अंतर्राष्ट्रीय खिलाड़ी और पदम् श्री अवार्डी भी शामिल हैं. ऐसा लगता है कि सरकार की हर साजिश अंततः उसके खिलाफ जाने लगी है और आंदोलन अखिल भारतीय स्वरूप ग्रहण करने लगा है. उनके हर संघर्ष का समर्थन और अविलम्ब विजय कामना.
किसानों के अदम्य साहस को नमन
(28th Nov. 2020)
- डॉ रामकवींद्र
26 नवंबर संविधान दिवस है और यह मोदी सरकार का मानस पुत्र है, क्योंकि 26 नवंबर 2015 (अम्बेडकर के 125 वें जन्मदिन) को इसकी शुरुआत हुई थी. इसके माध्यम से प्रधानमंत्री मोदी सम्भवतः संविधान के प्रति अपनी आस्था जाहिर करना चाहते थे, लेकिन उस समय भी आशंका जताई गयी थी कि इनका असली मकसद संविधान निर्माण में बाबा साहेब आम्बेडकर की भूमिका को सामने लाकर दलित भावना का दोहन करना है. अपने मकसद में वे काफी हद तक सफल भी हुए हैं, लेकिन यह सफलता टिकाऊ नहीं बन सकी. इसपर गंभीर प्रश्न 2018 में ही उठ गया था, जब दिल्ली में कुछेक हिन्दूवादी संगठनों ने संविधान की प्रति जलाई, मनु स्मृति के पक्ष में नारे लगाए और सरकारी महकमा अपनी चुप्पी में इसे दबा देने की कोशिश करता रहा.ध्यान देने की बात है कि इस गैर जनतांत्रिक कदम का विरोध सत्तासीन या संसदीय विपक्ष के दलित नेताओं ने नहीं किया बल्कि उभरते जुझारू दलित संगठन भीम आर्मी और उसके नेताओं ने किया. क्या यह इस बात का संकेत नहीं है कि दलितों के बीच एक छोटा सा सुविधाभोगी वर्ग पैदा हो गया है जो आधुनिक मनुवादी की भूमिका निभाता है. यह घटना भाजपा सरकार का असली मकसद उजागर करने की दिशा में पहला कारगर कदम बन गया था.
इस वर्ष का संविधान दिवस 'संविधान रक्षा संकल्प दिवस' या 'जनतांत्रिक अधिकारों पर हमला के खिलाफ प्रतिरोध दिवस' के रुप में बदल गया है. इस अवसर पर देश में तीन तरह के आंदोलन उभरे: संविधान की रक्षा में, अपने अधिकारों के लिए मजदूरों की राष्ट्रव्यापी हड़ताल और किसानों का दिल्ली मार्च. इन तीनों आंदोलनों की गुंज किसी न किसी रुप में देश के कोने कोने में गुंजी. लेकिन सबसे चर्चित रहा पंजाब और हरियाणा के के किसानों का दिल्ली मार्च. हरियाणा की खट्टर-चौटाला सरकार और केंद्र सरकार की ओर से रोकने की हर कोशिश के बावजूद लाखों किसानों का जत्था दिल्ली की ओर बढ़ता रहा. आज उनके हौसले के सामने केंद्र की मोदी सरकार झुकने को मजबूर हुई. यह किसानों के समग्र संघर्ष की पहली जीत है जिसके लिए वे बधाई के पात्र हैं.
अच्छी बात है कि किसान संगठन इस उपलब्धि से संतुष्ट नहीं हैं. कुछ किसान बुराड़ी मैदान पहुँचकर वहां से बॉर्डर वापस लौट आये. दिल्ली प्रवेश की सरकार की अनुमति में दो पेंच हैं. एक तरफ सरकार शर्त थोप रही है कि आंदोलन शांतिपूर्ण रहे और किसान निरंकारी मैदान बुराड़ी में इकट्ठा हों. कैसा क्रूर मजाक है कि पंजाब - हरियाणा बॉर्डर और हरियाणा-दिल्ली बॉर्डर पर सड़क खोदकर,अवरोध खड़ाकर किसानों की राह रोकने से लेकर आंसू गैस के गोले छोड़ने और इस ठंडे मौसम में उनपर पानी का बौछार कर शांति भंग करने का काम सरकार कर रही है और शांति की गारंटी किसानों से मांग रही है! किसान शांति की इससे बड़ी क्या गारंटी दे सकते हैं कि वे वहां तैनात पुलिस कर्मियों को अपने साथ खाना खिला रहे हैं. जनान्दोलन के इतिहास में बार बार बार साबित हुआ है कि शांति भंग करने का काम सरकारी एजेंसियों ने किया, यह इसमें भी दिख रहा है और इसका खतरा आगे भी है.
अब राजस्थान और पश्चिमी उत्तरप्रदेश के किसान भी दिल्ली की ओर बढ़ रहे हैं. आशा है, यह किसान संघर्ष जीत दर्ज कर व अन्य तबकों को जगाकर जनतांत्रिक आंदोलन में मील का पत्थर बन सकता है.
देश की एकता, अखंडता और सुरक्षा को खतरा
(23rd Nov. 2021)
- डॉ रामकवींद्र
तीन कृषि कानूनों की वापसी पर अपनी पहली टिप्पणी (21 नवंबर) में मैंने प्रताप भानु मेहता के नजरिए का जिक्र किया था जिसके अनुसार पंजाब प्रधानमंत्री की घोषणा के केंद्र में है और उत्तर प्रदेश विस चुनाव दूसरे स्थान पर. श्री मेहता ने पिछले एक साल में पंजाब में आए बदलावों का जिक्र किया है, जिन्हें सारांशतः निम्न शब्दों में व्यक्त किया जा सकता है :
-पंजाब में अविश्वास और अलगाव की जड़ें गहराती जा रही हैं, वहां हर नागरिक अपनी पहचान व आत्मसम्मान को लेकर चिंतित है. इससे अलग किस्म की चुनौती पैदा हो गयी है.
- किसान आंदोलन को अमान्य (बदनाम) करने के लिए दुष्प्रचार अभियान चला जिसमें मोदी सरकार तथा भाजपा नेताओं ने बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया था.
- इससे पंजाब में भी जम्मू और कश्मीर तथा उत्तर पूर्व के राज्यों जैसी स्थिति पैदा हो सकती है और इससे उत्पन्न अलगाववाद पर नियंत्रण मुश्किल हो सकता है.
- इसकी कल्पना से ही सरकार के हाथ पाँव फूलने लगे और नर्वस होकर वह (पंजाब की) पुरानी स्थिति की वापसी के प्रयास में जुट गयी.
- इसीलिए सिखों को खुश करने के लिए प्रधानमंत्री ने गुरू प्रकाश पर्व के अवसर पर यह सौगात दी.
प्रताप भानु मेहता का यह विवरण हवा हवाई नहीं हैं. सम्भवतः यह आरएसएस और भाजपा के शीर्ष नेताओं के बीच अंदरूनी चर्चा पर आधारित है. आंदोलन को बदनाम करने के लिए सिखों को केंद्रित कर कितने अपशब्द कहे गये, उनकी सूची दोहराना यहाँ सम्भव नहीं है. वह हर संवेदनशील नागरिक के जेहन में है. हम यहाँ आरएसएस की चिंता और उसकी ओर से जारी निर्देश पर केंद्रित करेंगे. 21 नवंबर के 'दी इंडियन एक्सप्रेस) की खबर के अनुसार इस संगठन ने बड़े साफ निर्देश दिये हैं : उत्तर प्रदेश चुनाव प्रचार में सिखों और जाटों के खिलाफ कठोर शब्द न प्रयोग किये जाएं.
संघ को प्राप्त सूचना के अनुसार किसान आंदोलन और लखीमपुर की घटना ने इन समुदायों पर नकारात्मक प्रभाव छोड़ा है. दरअसल संघ परिवार किसान आंदोलन (खासकर सिख किसान) और सरकार के बीच उत्पन्न तल्खी से डरा हुआ है. उसका मानना है इस एक साल में सिख नौजवानों का अलगाव बढ़ा है. आरएसएस का दावा है कि 1980 के दशक में अलगाव की स्थिति से निबटने के लिए उन्होंने राष्ट्रीय सिख संगत का गठन किया था जिसका प्रभाव भी पड़ा. अब वह खतरे में है. ध्यान दीजिये 1980 के दशक के अलगाव का दंड कांग्रेस आज तक भोग रही है. अपने ऊपर उसकी पुनरावृति की सम्भावना को देखकर संघ नेतृत्व की रूह कांप उठी है.
पिछले सात वर्षों में (खास कर अंतिम दो वर्षों) अपनी कट्टर हिन्दू अंधराष्ट्रवादी नीतियों से भाजपा ने सभी अल्पसंख्यक समूहों को अलग थलग कर दिया है जिसका प्रभाव देश से लेकर दुनिया के स्तर तक साफ दिखाई पड़ने लगा है. न सिर्फ मुसलमानों और इस्लामी देशों पर बल्कि पुर्वोत्तर राज्यों से लेकर चीन तक भी. यह अकारण नहीं है कि जिस चीन ने भारत पाकिस्तान के मामले में पहले तटस्थ नीति अपनायी थी वही अब अरुणाचल से लेकर लद्दाख तक हस्तक्षेप शुरू करता दीख रहा है. अरुणाचल सीमा पर बस्ती बसाना ऐसा ही कदम है.
इस राष्ट्रीय व अतर्राष्ट्रीय स्थिति में आरएसएस के हाथ पाँव फूल जाना स्वाभाविक है और कृषि कानूनों की वापसी की प्रधानमंत्री की आकस्मिक कार्रवाई इसी भय की देन है. पूंजीवादी विपक्ष के लिए ये बातें भले बड़ी न हों लेकिन क्रांतिकारी और जनवादी शक्तियां दो कारणों से इसे नजरअंदाज नहीं कर सकतीं. पहला इसलिए कि सत्ता पर काबिज रहने के लिए जनहित और राष्ट्रहित को खतरे में डालनेवाले इन नकली राष्ट्रवादियों का सबसे मुखर भंडाफोड़ और उनके खिलाफ निर्णायक संघर्ष उन्हीं की जिम्मेदारी बनती है. और दूसरा इसलिए कि यही वैचारिक संघर्ष सर्वहारा अंतर्राष्ट्रीयतवाद के साथ साथ देश की मुकम्मल आजादी के लिए संघर्ष के एजेंडा से लोगों को शिक्षित करने का मौका देगा.
इसलिए उत्तर प्रदेश विस चुनाव जैसे तात्कालिक कार्यभार के साथ इस दीर्घकालिक कार्यभार को जोड़ते हुए यह साबित करने का सटीक मौका है कि बात बात में अपने विरोधियों को देशद्रोही घोषित करने वाले ये महानुभाव सिर्फ अपने आकाओं के हित साधन के लिए देश की एकता, अखंडता और सुरक्षा को खतरे में डाल चुके हैं. ये महानुभाव खुद अपनी देशभक्ति पर प्रश्नचिह्न खड़ा कर चुके हैं. इस प्रकार इनका सत्ता में बने रहना देशहित के खिलाफ हो गया है. यह जनता से अपील करने का सही मौका है कि ऐसे दलों को अविलम्ब सत्ता से बेदखल किया जाय.
वामपंथ के सामने अवसर और चुनौती (2)
- डॉ रामकवींद्र
बिहार विस चुनाव में पूंजीवादी पार्टियों साथ वामपंथ को चुनावी संयुक्त मोर्चे का अवसर इसलिए मिला कि पूंजीवादी संकट, उसकी पार्टियों के बीच कलह और भाजपा-आरएसएस के नेतृत्व में उपजे हिंदुत्ववादी फासीवाद का हमला तेज होता जा रहा है. विस चुनाव 2015 और लोस चुनाव 2019 में यह अवसर चाहकर भी नहीं मिला था क्योंकि उस समय विपक्ष को अपनी क्षमता पर भाजपा को परास्त कर देने का हौसला बुलंद था. लोस चुनाव में पराजय के बाद स्थिति बदली और यही वाम के लिए अवसर बन गया. इस चुनाव में कांग्रेस का खराब प्रदर्शन संकेत है कि यह अवसर फिलहाल जारी रह सकता है. राजद का जनाधार तो आज भी मौजूद है, लेकिन ओवैसी की पार्टी ने उनके मुस्लिम आधार में छेद कर दिया है.
भविष्य में इस जनाधार को फिर से हासिल करने की चुनौती है. इसका समाधान इस बात पर निर्भर करेगा कि बिहार विस में मीम कैसी नीति अपनाती है. वह भाजपा के खिलाफ विपक्ष का साथ देगी या मायावती की तरह छद्म तरीके से भाजपा को सहयोग करती रहेगी. दूसरी तरफ भाजपा की नजर अतिपिछड़ी व महादलित जातियों के आधार पर है जिसे नीतीश कुमार ने राजद से छिना था. हालांकि उत्तर प्रदेश में योगी राज का कटु अनुभव सामने है फिर भी मामला इस सच को समझने-समझाने और सीखने सिखाने का है. दूसरी ओर इन सभी समूहों के गरीब मेहनतकश जनाधार पर वाम की दावेदारी सबसे अधिक बनती है और उसे वापस पाने की कोशिश करनी भी चाहिए.
1950 के दशक में संघर्ष के क्षेत्रों में इस जनाधार पर वाम काबिज था या लोहिया का समाजवादी खेमा. फिर भी बड़ा जनाधार कांग्रेस के साथ था. उस समय ये दोनों खेमे भूमि संघर्ष का नेतृत्व व प्रतिनिधित्व करते थे. वाम का नारा हुआ करता था : जो जमीन को जोते बोये वह जमीन का मालिक हो. इसके समानांतर लोहियावादी नारा था: धन और धरती बंट के रहेगी. लेकिन 1960 के दशक में समीकरण बदल गया. तब समाजवादी लोगों का मुख्य नारा बन गया था: पिछड़ों ने है बाँधी गांठ, लड़कर लेंगे सौ में साठ. यह स्पष्टतः वर्ग से जाति में शिफ्ट की शुरआत थी. उसी समय पूंजीवादी राजनीति में गैरकांग्रेसवाद का नारा आया और वामपंथी भी इसकी चपेट में आये. इतनी आसानी से यह इसलिए भी हो गया कि सोवियत संघ में बदली स्थिति से वे वर्गच्यूत हो चुके थे. बाद में तो धीरे धीरे कम्युनिस्ट नाम के साथ पूँजीवाद के प्रतिनिधि बन गये.
जिस समय यह शिफ्ट हो रहा था उसी समय नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह के गर्भ से उत्पन्न भाकपा मा-ले ने गांव के पिछड़े व दलित गरीबों को जुझारू संघर्ष में उतार दिया था जिसने सामंतवाद के आर्थिक व सामाजिक प्रभुत्व की जड़ें हिला दी थी. आज की संसदीय राजनीति में शामिल लिबेरशन ग्रुप उसी की उपज है. सत्ता में आने के बाद कर्पूरी ठाकुर और बाद में लालू प्रसाद ने अपने उन्हें अपने जनाधार में शामिल किया. 1980 और '90 के दशक में अम्बेडकरवाद के उभार ने समस्त वामपंथ पर वैसा ही प्रभाव छोड़ा जैसा 1960 के दशक में लोहियावाद ने छोड़ा था. इसके प्रभाव में माले धारा के ग्रुप भी आ गये, संसदीय और गैरसंसदीय दोनों. इसके फलस्वरूप अलग अलग नारों व जुमलों के बावजूद सबके लिए मार्क्सवाद-लेनिनवाद पृष्ठभूमि में चला गया. निश्चय ही थोड़े से लोग इस घालमेल के खिलाफ मजबूती से खड़े है, लेकिन उनके पास जनाधार नहीं है या नगण्य है.
लिबेरशन ग्रुप ने तो इस संबंध में नया नारा ही गढ़ लिया : अम्बेडकर, भगत सिंह के रास्ते...... यह बेमेल तत्वों को मिलाकर बनाया गया खिचड़ी नारा है. वैचारिक घालमेल की इस स्थिति को देखते हुए सवाल उठता है कि क्या वामपंथ इस गठबंधन में क्रांतकारी राजनीति के हित साध पायेगा? यह यक्ष प्रश्न है और वाम के सामने चुनौती भी.
इसके समाधान की चर्चा आगे.
नीतीश कुमार का सातवां राजतिलक
- डॉ रामकवींद्र
16नवंबर 2020 को शपथ ग्रहण के बाद बिहार के राजनीतिक इतिहास के कई रिकॉर्ड नीतीश कुमार के नाम दर्ज हो गए. वे सातवीं बार मुख्यमंत्री की शपथ लेने वाले पहले पहले व्यक्ति बन गए तो लगतार सबसे लम्बे समय तक मुख्यमंत्री बने रहने और एक महिला सहित दो उपमुख्यमंत्री बनाने का रिकॉर्ड भी उन्हीं के नाम दर्ज हो गया. इसके साथ ही उनके नाम दो रिकॉर्ड और दर्ज हुए : उनके नेतृत्व में यह पहली सरकार बनी जिसमें अल्पसंख्यक (मुस्लिम) समुदाय का कोई मंत्री नहीं है. पिछले दिनों इस समुदाय की नजर में उन्होंने अपनी पार्टी की इतनी भद्द कराई कि मुस्लिम समुदाय के उनके सारे उम्मीदवार (कुल 11) चुनाव हार गये थे. अंततः मुख्यमंत्री के रुप में गठबंधन के बड़े भाई (भाजपा, 74सीट) के दबाव में काम करने को मजबूरी भी इस बार होगी. इसके पहले बड़े भाई की भूमिका में वे खुद रहते थे और सरकार काफी हद तक अपनी शर्तों पर चलाते था. इस बार यह समीकरण कैसे उलट गया, यह जगजाहिर है और नीतीश भी समझते हैं, लेकिन सवाल कुर्सी का है. इतने "शानदार" रिकॉर्ड के साथ बिहार के राजनीतिक इतिहास में अपना नाम दर्ज कराने के लिए वे बधाई के पात्र तो बनते हैं!
यकीन नहीं होता कि यह वही नीतीश हैं जो 2013 में नरेन्द्र मोदी के साथ अपना फोटो देखकर भड़क गये थे, उनके भोज का निमंत्रण रद्द कर दिया था, बाढ़ के दौरान गुजरात सरकार की मदद की राशि लौटा दी थी और अंततः मोर्चे से अलग हो गये थे. सचमुच ऐसा है भी नहीं. आज हम 2017 के उस नीतीश का संस्करण देख रहे हैं जिसने उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा की विशाल जीत से प्रभावित होकर, यूपीए सरकार तोड़कर और राज्य की जनता से विश्वासघात कर पुनः एनडीए में शामिल होने में तनिक परहेज नहीं किया था. सिर्फ लम्बे समय तक कुर्सी की सुरक्षा के लिए. यह 2017 के नीतीश का पतनशील संस्करण है जिसके नीचे गिरने और दल बदलने की कोई सीमा नहीं है. अंतर इतना है कि इस बार वे भाजपा के चंगुल में हैं.
इस बदलाव के साथ बिहार चौराहे पर खड़ा है, वह हिंदुत्ववादी फासीवाद की दिशा में कदम बढ़ाएगा या जन संघर्ष उसका रास्ता रोक देगा. बिहार से यह उम्मीद इसलिए बंधती है कि लम्बे समय के बाद इस बार यहां वामपंथ ने अच्छी जीत हासिल की है, विपक्ष ने बेरोजगारी, समान काम समान दाम, पुराना पेंशन स्कीम आदि जनपक्षीय मुद्दों को चुनावी मुद्दा बनाया है और एनडीए को भी इस दिशा में घसीट लिया. अब विपक्ष (सबसे बढ़कर वामपंथ) का दायित्व बनता है कि एनडीए के चुनावी मुद्दे (मसलन 19 लाख रोजगार जैसे) पर व्यापक जनसंघर्ष खड़ा कर उसका भंडाफोड़ करे. भविष्य काफी हद तक इस पर निर्भर है. यह काम थोड़ा पेचीदा भी है क्योंकि चिराग, मायावती और ओवैसी जैसे खुला या छद्म भाजपा एजेंट जनता की फासिज़्म विरोधी एकता में छेद कर सकते हैं. इस बार का चुनाव इस खतरे का साक्षी बन गया है. इससे सबक सीखने की जरूरत होगी.
इस जटिल परिस्थिति में वामपंथ के सामने अवसर हैं तो बहुत बड़ी चुनौती भी है. संकट तो पूंजीवादी राजनीति के सामने भी है, लेकिन यहां हम उस पर अलग से बात नहीं करेंगे. हमारा फोकस वामपंथ पर होगा: उनके सामने चुनौतियां क्या हैं? और क्या वे उनका सामना करने के लिए तैयार हैं? इन सवालों पर सभी क्रांतिकारी शक्तियों को विचार मंथन कर मुकाबला का रास्ता खोजना चाहिए. यह चर्चा आगे.
बिरसा मुंडा के सपनों को साकार करें
- डॉ रामकवींद्र
आज आदिवासी जनविद्रोह (उलगुलान,1900) के महानायक बिरसा मुंडा क़ी 146वीं जयंती है. इस वर्ष (2021-22) को आजादी के 'अमृत महोत्सव' के रूप में भी मनाया जा रहा है जिसमें बिरसा मुंडा की भूमिका को राष्ट्रीय फलक पर विस्तार देने की योजना बन रही है. यह आयोजन वे लोग कर रहे हैं जिनकी स्वंतंत्रता संग्राम में कोई भूमिका नहीं रही है. यह भी अकारण नहीं है कि इस वर्ष पद्मश्री से सम्मानित अभिनेत्री कंगना रानौत 1947 की आजादी को भीख में मिली आजादी बता रही हैं. कहने की जरूरत नहीं कि कंगना रानौत के सारे बकवास के पीछे संघ परिवार का शातिर दिमाग काम कर रहा है.
जाहिर है यह स्वतंत्रता संग्राम का निषेध है और बिरसा मुंडा सहित इस संग्राम के सभी शहीदों का अपमान भी. ऐसी परिस्थिति में यह विचार विमर्श जरूरी है कि बिरसा मुंडा पर यह खास मेहरबानी क्यों, जबकि आदिवासी जनता की रोजी रोटी के साधन जल जंगल जमीन उनसे छीने जा रहे हैं, उन्हें बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को सौंपा जा रहा है और इसके खिलाफ आवाज उठानेवालों पर देश भर में निर्मम दमन जारी है.
बिरसा मुंडा को राष्ट्रीय फलक पर पहुँचाने के पीछे का खास मकसद समझने के लिए पिछले झारखण्ड विस चुनाव के नतीजों पर ध्यान देना होगा जहाँ 28 आदिवासी बहुल क्षेत्रों में भाजपा को महज दो सीटों पर जीत मिली है. 2014 के बाद (कँगना के शब्दों में असली आजादी मिलने के बाद) झारखण्ड में भाजपा राज को याद कर लीजिये. अर्थनीति में भले ही कोई खास अंतर न दिखे, लेकिन दमन की कार्रवाई में रघुवर सरकार जैसा आतंक राज नहीं रहा. इसी राज में सरना धर्म को हिंदुत्व के दायरे में समेटने के प्रयास को राजनीतिक समर्थन मिलने लगा था, पत्थरगड़ी करने पर देशद्रोह का मुकदमा झेलना पड़ा था और आदिवासी जनता को सम्बोधित करने जा रहे स्वामी अग्निवेश को भगवा गुंडों के हाथों मार खानी पड़ी थी. ऐसे लोगों को कोई नैतिक अधिकार नहीं है कि बिरसा मुंडा की विरासत पर अपना हक जतायें.
बिरसा मुंडा का उलगुलान दिकुओं यानी विदेशी राज और उसके देशी दलालों (सेठों, व्यापारियों, जमींदारों आदि) के खिलाफ था. आज की बदली परिस्थिति में यह संघर्ष विदेशी पूँजी और उसके देशी एजेंटों के खिलाफ केंद्रित होना चाहिए. इस बदलाव को समझ कर ही मेहनतकश जनता की व्यापक जनतांत्रिक एकता के आधार पर भावी रणनीति तय की जानी चाहिए तभी बिरसा की विरासत उनके ख़ूनी चंगुल से बचायी जा सकती है.
उलगुलान का अनुसरण करें, बिरसा का सपना साकार करें,और खुशहाल झारखण्ड और खुशहाल भारत का निर्माण करें. यही बिरसा मुंडा को सच्ची श्रद्धांजलि होगी.
बिहार विस चुनाव परिणाम का विश्लेषण
- डॉ रामकवींद्र
बिहार विस चुनाव के नतीजों के बाद खुशी और गम का समय बीत चुका है. अब कम्युनिस्ट क्रांतकारियों, सभी जनतांत्रिक और प्रगतिशील शक्तियों की जिम्मेदारी है कि इसका तथ्यपरक विश्लेषण कर आगे का कार्यभार तय करें. चुनाव परिणाम आने के बाद पटना के राजनीतिक हलकों में छायी चुप्पी और दिल्ली का उत्सव आश्चर्यजनक लगा. उतना ही आश्चर्यजनक था नीतीश कुमार का मौन और चिराग पासवान का "विजय उद्घोष". हालांकि लोजपा मात्र एक सीट जीत पायी है लेकिन चिराग को इसका कोई अफसोस नहीं है. उल्टे, उन्हें दासभाव से गर्व है कि जदयू को क्षति पहुंचाकर उन्होंने भाजपा की मदद की और रामभक्त हनुमान की भूमिका निभा दी. इसके पहले दिल्ली के उत्सव में प्रधानमंत्री पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा की सफल रणनीति की प्रशंसा कर चुके थे. क्या चिराग अभियान इसी रणनीति का अंग हैं ! सम्भवतः इसीलिए चिराग आश्वस्त हैं कि केंद्र सरकार उनकी क्षतिपूर्ति कर देगी. स्थिति यह है कि षड्यंत्र के तहत नीतीश के पंख तो कतरे जा चुके हैं लेकिन वे चीख भी नहीं पा रहे हैं. सत्ता का नशा पीलाकर अपने घटक दल के साथ विश्वासघात का ऐसा उदाहरण इतिहास में विरले ही मिलेगा.
विपक्ष की चुप्पी समझी जा सकती थी कि यह सदमे की चुप्पी है. लेकिन सबसे विचित्र था कि नीतीश चुप थे और भाजपा नेता सुशील मोदी बार-बार दोहरा रहे थे कि नीतीश कुमार ही मुख्यमंत्री होंगे. इसके पीछे के रहस्य को समझने के लिए वोट गिनती के दौरान की कुछेक टिप्पणियों को याद कर लेना बेहतर होगा. उस समय कुछ भाजपा समर्थक बुद्धिजीवी और कार्यकर्ता ऐसी आवाज उठाने लगे थे कि सीटों की संख्या को ध्यान में रखते हुए नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री की दावेदारी छोड़ देनी चाहिए. इन सभी चर्चाओं के बीच अंदरूनी खिचड़ी पकने के अनुमान भी लगाए जाने लगे थे. सुशील मोदी सम्भवतः इस कंफ्यूजन पर सफाई देने की कोशिश कर रहे थे. कल शाम के बाद स्थिति साफ हो गयी. नीतीश जी हर्ष-विषाद रहित मुद्रा में सामने आये और घोषणा की कि मुख्यमंत्री पद पर उनका दावा नहीं है जबकि चुनाव पूर्व साझा प्रेस सम्मेलन में वे स्पष्ट घोषणा करवा चुके थे कि सीटों की संख्या चाहे जो हो, मुख्यमंत्री नीतीश ही बनेंगे. यह है सत्ता लोलुप नेता का वैराग भाव. उनकी दूसरी घोषणा थी कि वे सेवा करते रहे हैं और आगे भी करते रहेंगे. हमलोग आगे समझेंगे कि किस "निष्ठा" से उन्होंने जनता की सेवा की है. जब उनसे पूछा गया कि चिराग पासवान का (और सुशील मोदी का भी) दावा है कि उनके कारण लोजपा को लगभग 25 सीटों का घाटा हुआ है, तो आप उन्हें एनडीए से बाहर करने की मांग करेंगे. एक बार फिर वैराग भाव से उनका कहना था कि इस पर भाजपा को विचार करना है. इन सबसे आगे का परिदृश्य बिल्कुल साफ है : एनडीए में जदयू भाजपा की कृपापात्र की हैसियत स्वीकार करने को तैयार है और भावी सरकार में नीतीश भले ही मुख्यमंत्री रहें, लेकिन सरकार भाजपा की रहेगी और वे उसकी कठपुतली की तरह नाचेंगे.
यह बिहार की राजनीति में महत्वपूर्ण मोड़ है. इसके पहले बिहार में नीतीश बड़ी पार्टी की हैसियत से सरकार चलाते थे, लेकिन अब वे कठपुतली की हैसियत से चलाएंगे. 2013 में जो तेवर उन्होंने दिखाया था, वह गायब हो चुका है. इसकी प्रक्रिया 2017 में ही शुरू हो चुकी थी, जो आज अपने निष्कर्ष पर पहुँच चुकी है जिसका हथियार चिराग पासवान बने. वे बिहार में फासिज़्म के रथ का घोड़ा बनकर दलित समुदाय के गरीबों के गले की फांसी का फंदा तैयार करने में सहयोगी बन गए हैं. यह वे जानबूझकर कर रहे हैं या अनजाने, इससे स्थिति में कोई खास अंतर नहीं आ पायेगा. करीब करीब ऐसी ही भूमिका मुसलमानों के बीच ओवैसी निभा रहे हैं. जाति वर्ग संबंध पर शोध करने वाले नेताओं व विचारकों के लिए ये दोनों नेता बड़े सवाल बन गए हैं, जिनका जवाब खोजना होगा.
लेकिन आशा की किरण अभी बाकी है, महागठबंधन हताश नहीं दिख रहा है. गठबंधन के नेता तेजस्वी ने महागठबंधन के संयुक्त प्रेस वार्ता में यह घोषणा कर दी है कि हम हारे नहीं है, लगभग बीस सीटों पर गिनती में बेईमानी कर हमें हराया गया है. इसके साथ ही उन्होंने दो घोषणाएं कीं : वे धन्यवाद यात्रा के दौरान जनता से संवाद करेंगे और न्याय प्रक्रिया में जरूरत पड़ी तो न्यायालय का दरवाजा भी खटखटाएंगे. लेकिन इन दोनों के साथ तीसरा जरूरी काम है कि 19 लाख रोजगार सहित भाजपा के घोषित सभी मुद्दों पर जनान्दोलन तेज किया जाए. इसी क्रम में क्रन्तिकारी ताकतों के लिए सबसे बड़ी चुनौती होगी कि फासिज़्म के खिलाफ संघर्ष की धार को तेज करते हुए मजदूरों और गरीब किसानों के बीच वर्ग चेतना विकसित करें.
इसके लिए चुनाव की जय पराजय से उत्पन्न सभी सवालों की पहचान कर एक मान्य जवाब की खोज करनी होगी. इन सभी बिन्दुओं पर समग्र चर्चा जारी रहेगी. आशा है, साथी सहयोग करेंगे.
उप-चुनावों के संकेत
- डॉ रामकवींद्र
लोक सभा और विधानसभा सीटों पर उप चुनाव के नतीजों की घोषणा और केंद्र सरकार द्वारा पेट्रोल और डीजल के उत्पाद कर में क्रमशः 5 व 10 रूपये की कमी की घोषणा कोई संयोग नहीं है, बल्कि चुनाव नतीजों से घबराई भाजपा के डर की अभिव्यक्ति है. इस घोषणा के साथ ही केंद्र सरकार ने अगले चुनाव के मद्देनज़र राज्य सरकारों के सामने एक चुनौती भी पेश कर दी. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने राज्य सरकारों से आग्रह कर दिया कि वे भी वैट में कटौती करें. 2022 के पांच राज्यों के चुनावों पर गौर करें तो ज्यादा राज्यों में भाजपा या उसके समर्थकों की सरकारें हैं. इसी साल के अंत में होने वाले चुनावों विस चुनावों की तस्वीर भी ऐसी ही है. सीटों की संख्या के लिहाज से उत्तर प्रदेश में अकेले जितनी सीटें हैं, उतनी संभवतः अन्य चार राज्यों को मिलाकर भी नहीं होंगी. इस प्रकार यह चुनौती खुद भाजपा के खिलाफ ही चली जाती है. क्या उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड और गोवा के मुख्यमंत्री वैट घटाने की घोषणा करेंगे?
इस उपचुनाव के संकेत मिलेजुले हैं. पहला रुझान तो यही है कि राज्यों की सत्तासीन पार्टियों ने बाजी मार ली है. हिमाचल प्रदेश और हरियाणा अपवाद हैं और यही भाजपा के लिए सरदर्द है. इन राज्यों की विशेषता है कि ये किसान आंदोलन के गढ़ हैं और इस हार से भाजपा का भयभीत होना लाजिमी है. वैसे तो यह कटौती दुखती रग पर मरहम लगाने की कोशिश है, लेकिन लगता है कहीं जले पर नमक जैसा न साबित हो जाय. परिणाम चाहे जो हो, इससे किसान आंदोलन के बढ़ते राजनीतिक प्रभाव का प्रमाण तो मिल ही जाता है. साथ ही यह भी साफ हो जाता है कि अंधभक्तों का कुप्रचार इन राज्यों में काम नहीं आ सका.
इस उपचुनाव का दूसरा रुझान क्षेत्रीय दलों की मजबूती में दीखता है. मुख्यतः पश्चिम बंगाल, बिहार (और सबसे बढ़कर दादर लोस सीट पर) शिवसेना की जीत इसकी पुष्टि करती हैं. इससे यह आशंका पैदा होती है कि क्या केंद्र में 1896 की पुनरावृति होगी? इसे टालने के लिए संभव है, आने वाले दिनों में मजबूत सरकार और राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा फिर से उठाया जाय. वैसा माहौल बनाने के संकेत भी मिलने लगे हैं, सीमा पर (लद्दाख में) चीन की हरकतों का हवाला देकर. जनता को याद रखना चाहिए कि हमारे गृहमंत्री ने संसद में अक्साई चीन पर कब्ज़ा करने की घोषणा कर रखी है, लेकिन इस बीच हो गया उल्टा. पिछले दिनों जब कई सैन्य विशेषज्ञ हमारी सीमा में चीन के घुसने पर चिंता जता रहे थे, तब प्रधानमंत्री देश को आश्वस्त कर रहे थे कि हमारी सीमा में कोई नहीं घुसा है. क्या इससे पता नहीं चलता कि इन पार्टियों और नेताओं का आचरण विश्वसनीय नहीं है?
इसलिए शोषित पीड़ित जनता के मन में एक बात पैठ जानी चाहिए कि कट्टर सांप्रदायिक साम्राज्यवादपरस्त पूँजीवादी पार्टी की सरकार के मजबूत होने का मतलब है - विरोधी जनता पर घोर दमन की तैयारी और जनता द्वारा ऐसे कदम के समर्थन का मतलब है - खुद जानबूझकर अपने गले में फांसी का फंदा डालना, कसईखाने में समर्पण. हम उम्मीद कर सकते हैं कि भावी चुनावों में लोग अपने जीवन और इतिहास के अनुभव से सीखेंगे और अंधराष्ट्रवाद के झांसे में न आकर अपने वर्ग हित में फैसला लेंगे
मोरबी के अपराधियों के खिलाफ संगठित हो संघर्ष करें
- डॉ रामकवींद्र
गुजरात के मोरबी में झूला पुल दुर्घटना (अक्टूबर 30) जिसमें करीब 140लोगों की जान चली गयी और सैकड़ों घायल हुए महज दुर्घटना नहीं है. यह गुजरात की आरएएस समर्थित भाजपा सरकार, मोरबी नगरपालिका और पुल का रख-रखाव और प्रबंधन देखने वाली (एरवा) कम्पनी के मालिक और मैनेजर की लापरवाही और गंभीर साजिश का परिणाम है.
गुजरात विस चुनाव के माहौल में हमारे प्रधानमंत्री मोरबी में इस जनसंहार पर आंसू बहा रहे हैं. भक्तों को छोड़कर अन्य लोगों की नजर में उनके आंसू प्रहसन के स्रोत बन गये हैं. कोरोना काल में भी देखा गया था कि बनारस में कार्यकर्ताओं के वीडियो सम्बोधन के दौरान वे रोने लगे थे. लेकिन मूल सवाल है कि उत्तर प्रदेश या बनारस की स्वास्थ्य संरचना में जनहित की दिशा में कोई उल्लेखनीय सुधार हुआ? संभवतः नहीं. दरअसल, उनकी आदत बन गयी है कि जब विरोधियों पर हमला करना होता है, तब वे दहाड़ते हैं, लेकिन जब खुद जवाब देना होता है, तो रोने लगते हैं. इसलिए ये आंसू घड़ियाली आंसू के अतिरिक्त कुछ साबित नहीं होंगे.
हालांकि इस घटना के तुरंत बाद गुजरात राजनीति के सभी प्रमुख पूंजीवादी नेताओं ने इस घटना पर राजनीति नहीं करने की घोषणा की थी, लेकिन राजनीति शुरू होने में देर भी नहीं लगी. आरोपों प्रत्यारोपों का दौर शुरू हो चुका है.
इस दुर्घटना के बारे में जैसे जैसे तथ्य सामने आ रहे हैं, वैसे वैसे पक्षपात और भ्रष्टाचार की बू आने लगी है. इससे जुड़े सवाल हैं कि मोरबी जिलाधिकारी की असहमति के बावजूद इस पुल की मरम्मत का ठेका किसी टेंडर के बिना एक घड़ी बनानेवाली कम्पनी को क्यों और कैसे मिल गया? इसके लिए दबाव बनानेवाले भाजपा नेता कौन थे? दूसरा सवाल यह उठता है कि पुल खोलने के चार पांच दिनों में ही वह कैसे टूट गया, मरम्मत हुआ था या सिर्फ लीपा पोती हुई थी? पब्लिक के लिए पुल खोलने के निर्णय लेनेवाले सक्षम पदाधिकारी के प्रमाणपत्र के बिना पुल खोलने की अनुमति कैसे मिली और किसने दी? पुल की क्षमता से अधिक लोगों को जाने की अनुमति किसने दी? यह सब कम्पनी के मुनाफे की हबस का नतीजा है या कुछ और? अभी इससे जुड़े तथ्यों के खुलासे के बाद ऐसे कई प्रश्न उठ सकते हैं. लेकिन क्या जवाब भी मिलेगा!
अब तो आश्चर्यजनक खुलासा यह भी हो रहा है कि मोरबी नगरपालिका को पुल खुलने की जानकारी नहीं थी? परत दर परत खुलने पर ऐसी कई बातें सामने आ सकती हैं जिनसे पूरे शासन तंत्र के जनविरोधी चरित्र का घिनौना पक्ष सामने आ सकता है.
इस मामले में जाँच कमिटी तो बन गयी है, जैसा अब तक हर मामले में होता आया है, लेकिन सवाल है कि इस कमिटी की अनुशंसाएं लोगों के सामने आएंगी और व्यवस्था की कार्यपद्धति में कोई जनपक्षीय सुधार हो पायेगा? सम्भव है कि इस जाँच कमिटी का मकसद भी लीपा पोती हो. इसलिए इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में जाँच ही थोड़ी-बहुत उम्मीद जगा सकती है. क्या ऐसा होगा?
मामला बिल्कुल साफ है, इस आदमखोर व्यवस्था में आम आदमी अपने को सुरक्षित नहीं रख सकता है, उसकी तबाही और बर्बादी के रास्ते चाहे जो हों. उसे आज या कल अस्तित्व रक्षा की लड़ाई लड़नी ही होगी. यह महज एक संयोग है कि यह दुर्घटना ऐसे समय में हुई है जब गुजरात की जनता विस चुनाव में अपने मताधिकार का उपयोग करने जा रही है. यह चुनाव उसकी अस्तित्व रक्षा की लड़ाई का मंच तो नहीं बन सकता, लेकिन उस दिशा में कदम उठाने का प्रारम्भबिंदु जरूर बन सकता है.
जगजाहिर है कि गुजरात हिंदुत्व की प्रयोगशाला हैं. लेकिन इस दुर्घटना में हुसैन की भूमिका मानवता के पक्ष में बड़ा उदाहरण बन गयी है. जाति और धर्म की संकीर्ण भावना से ऊपर उठकर उसने दर्जनों लोगों को मौत के मुंह से निकाला है. गुजरात सरकार और नागरिक समाज का दायित्व बनता है कि इस व्यक्ति को सम्मानित करे. लेकिन क्या ऐसा होगा? या यह अघोषित फैसला है कि हर तरह की सुविधा और सम्मान वहाँ सिर्फ हिंदुत्ववादी "संस्कारी" बलात्कारियों और हत्यारों के लिए सुरक्षित रहेंगे.
दुख और संवेदना की इस घड़ी को ताकत और संघर्ष में बदलना होगा. फिलहाल दोषियों को दंड देने के लिए और इसकी निरंतरता में जनता के जनतंत्र की दिशा में संघर्ष करना होगा ताकि आनेवाली पीढ़ियां भ्रष्टाचार और साजिश की बलि चढ़ने से बचें और बेहतर समाज का निर्माण हो.
सत्ता संघर्ष में बिहार की जनता
- डॉ रामकवींद्र
बिहार विस चुनाव के केंद्र में तेजस्वी यादव स्थापित हो चुके हैं. पहले चरण के चुनाव में उनका वक्तव्य 'नीतीश थक चुके हैं, बिहार उनसे नहीं संभल रहा है', काफी चर्चा में आया था. गहराई से विचार किया जाए तो ऐसा लगता है कि एनडीए का पूरा खेमा ही थक चुका है. इस समूह के उम्मीद की एक मात्र किरण प्रधानमंत्री मोदी हैं जो रामबाण की तरह हर मर्ज में काम आते हैं. इसका मतलब है कि बिहार के भाजपा नेतृत्व में कोई नेता नहीं जो "नवसिखिया" (एनडीए नेताओं का जुमला) तेजस्वी का मुकाबला कर सके.
दूसरी ओर प्रधानमंत्री मंत्री की सारी बातें घिसे पिटे रिकॉर्ड जैसी हो गयी हैं. वे जनसमस्या मसलन बेरोजगारी, महंगाई, शिक्षा, चिकित्सा जैसे मुद्दों पर भूलकर भी चर्चा नहीं कर रहे हैं. यहाँ तक कि मुंगेर में दुर्गा प्रतिमा विसर्जन जुलूस पर पुलिस गोलीकांड पर भी बोलने का साहस नहीं जुटा रहे हैं. "जंगल राज के युवराज" (उन्हीं का जुमला) चुनाव का एजेंडा तय कर रहा है और वे उसपर घिसटने को मजबूर हैं. ऐसी बेचारगी किसी अन्य प्रधानमंत्री की शायद ही कभी देखी गयी होगी !
दूसरा विरोधाभास. गृह राज्य मंत्री जो खुद बिहार से हैं, जनता को आतंकित कर रहे हैं कि महागठबंधन की जीत का मतलब होगा कि कश्मीर के आतंकी यहां आश्रय लेंगे. इससे वे अपने ही मंत्रालय को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं.
2015 में भी ऐसे हथकंडे का इस्तेमाल किया गया था, महागठबंधन जीता तो पाकिस्तान में पटाखे फूटेंगे. तब इसका प्रभाव नहीं पड़ा था, अब भी नहीं पड़ेगा.
सबसे शर्मनाक बात है कि बिहार में लालू के जंगल राज की बात उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री योगी आदित्यनाथ कर रहे हैं जिनका शासन खुद गुंडा राज के रुप में कुख्यात है. यह अगर प्रधानमंत्री को नहीं दीख रहा है तो निश्चय ही इसमें हिंदुत्ववादी राजनीति के प्रति उनकी पक्षधरता उजागर होती है : हिंदुत्व राज का मतलब है सवर्ण गुंडों (ठाकुर गुंडों) को राज्य का खुला समर्थन.
जो भी हो, इस संघर्ष के मैदान में जनता का मुद्दा महागठबंधन के खेमे में है, इसलिए वोट का रुझान उधर होना स्वाभाविक है. लेकिन यहां सावधान रहने की जरूरत है. अगर लोग सतर्क और संगठित नहीं रहे तो इससे मनोवांक्षित परिणाम मिलना मुश्किल हो जायेगा. हमेशा याद रखिए, जनता संसदीय राजनीति का लाभ सड़क के आंदोलन के बल पर ही उठा पाती है. एनडीए की पराजय इसके लिए अनुकूल परिस्थिति पैदा करेगी.
अगली लड़ाई के लिए जरूरी है कि लोग अपने वर्ग हित की पहचान करना और उस पर संघर्ष करना सीखें. इसके अलावा मुक्ति का कोई दूसरा रास्ता नहीं है -कवीन्द्र (क्रमशः)
सत्ता संघर्ष में बिहार - 1
- डॉ रामकवींद्र
बिहार विस चुनाव का पहला चरण अंतिम दौर में है, दोनों बड़े खेमों के शीर्षस्थ नेता जनता को सम्बोधित कर चुके हैं और तस्वीर का धुंधलापन छंटने लगा है. चुनाव की प्रक्रिया शुरू होने के पहले कयास लगाया जा रहा था कि यह चुनाव एनडीए के लिए खाली मैदान साबित होगा, लेकिन चुनाव की प्रक्रिया शुरू होते ही पासा पलटने लगा. अब तो महागठबंधन समर्थकों को लगने लगा है कि वे जंग जीत लेंगे. जिस अनुपात में यह आत्मविश्वास बढ़ रहा है, उसी अनुपात में दूसरा खेमा हतोत्साहित नजर आने लगा है. इस स्थिति में दिल्ली स्थित बुद्धिजीवियों सहित कई लोगों का विश्वास था कि प्रधानमंत्री मोदी की रैली के बाद दृश्य बदल जायेगा.
कल मोदी की पहले दौर की तीन चुनावी (डेहरी ऑनसोन, गया और भागलपुर) सभाएं हो गयीं. इस दौरान सोशल मीडिया के लोगों ने मोदी की गया की सभा और राहुल व तेजस्वी की हिसुआ (नवादा ) सभा की भीड़ की तुलना कर मोदी की सभा को फ्लॉप घोषित कर दिया. इस मूल्यांकन का मतलब बहुत साफ है. मुद्दों की बात करें तो भी मोदी ने कुछ भी नया नहीं जोड़ा जो चुनाव की दिशा बदलने में सक्षम लगे. वे सिर्फ रक्षात्मक नजर आये.
उनके भाषण तीन बिन्दुओं पर केंद्रित रहे : बिहार गौरव, नीतीश राज का विकास और लालू का कुशासन. पहले मामले में उनके स्टाइल का एक जुमला था, 'बिहार देश के संस्कार, सम्मान और स्वाभिमान बा'. उनकी ये तीनों बातें सवालों के घेरे में हैं. संस्कार, सम्मान और स्वाभिमान पर सबसे बड़ा सवाल है कि कोरोना लॉक डाउन के दौरान जब सूरत, अहमदाबाद, और बंगलुरु जैसे भाजपा शासित राज्यों के शहरों में इन्हीं बिहारी मजदूरों पर लाठी चार्ज सहित कई तरह से ज़्यादती हो रही थी, तब इनका यह बोध कहाँ था ! इतना ही नहीं जब पैदल आ रहे मजदूरों के सामने दिल्ली से उत्तर प्रदेश तक सब तरह से बाधाएं खड़ी की गयीं, जिसमें पुलिसिया मारपीट भी शामिल था, उस समय उनका यह बोध कहाँ गायब हो गया था ! चुनाव के समय ही यह गौरव बोध क्यों जगता है!
नीतीश के विकास का सच सिर्फ राष्ट्रीय राजमार्गों तक सीमित है. गाँव गिरान की सच्चाई जनता और ग्रामीण इलाकों में जाने वाले पत्रकारों के वीडियो दिखा रहे हैं. इस विकास का दूसरा सच है कि उद्घाटन के बाद या पहले ही नव निर्मित पुल टूट गये हैं और बाढ़ की त्रासदी हर साल असह्य हो जाती है. इसका तीसरा सच है, कोरोना के दौरान स्वास्थ्य संरचना का चरमरा जाना. इन सब पर जनाक्रोश अपना रुप दिखा रहा है. लॉक डाउन में ढील के साथ ही मजदूरों का फिर से पलायन बीमारू राज का संकेत है या विकासमान राज्य का! इसका जवाब प्रधानमंत्री सहित सभी नेताओं को देना पड़ेगा. जहाँ तक लालू राज के कुशासन की बात है जनता उसका दंड उन्हें दे चुकी है और अब उससे उबरकर आगे नीतीश राज के "सुशासन" का हिसाब देखना चाहती है.
लेकिन अगर प्रधानमंत्री उसी पर केंद्रित रहते हैं तो उनसे पूछा जायेगा कि उत्तर प्रदेश के योगी राज में रामराज के वादे की आड़ में जारी गुंडा राज के बारे में क्या कहना है और क्या गारंटी है कि बिहार में भाजपा-जदयू का अगला राज उत्तर प्रदेश का अनुसरण नहीं करेगा!
सत्ता संघर्ष में बिहार - 2
- डॉ रामकवींद्र
आज सी वोटर्स-एबीपी न्यूज का का एक सर्वें बिहार विस चुनाव पर आया है जिसमें एनडीए को स्पष्ट बहुमत हासिल करते दिखाया गया है. इसने जमीनी छानबीन करने वाले पत्रकारों को हैरत में डाल दिया है. जमीनी सच्चाई ठीक उलट दिख रही है.दरअसल इसमें अचरज की कोई बात नहीं है. पिछले अनुभव बताते हैं कि ऐसे हवाई सर्वें अधिकांशतः गलत होते हैं. लेकिन ऐसा कभी नहीं देखा गया है कि किसी सर्वेक्षक ने अपनी गलती स्वीकार की और जनता से माफी मांगी. ऐसा लगता है कि ऐसा सर्वें करने वालों का सबसे मुखर खेमा अर्णव मोड में आ गया है और केंद्र की सत्ता की ख़ुशी को ध्यान में रखता है. मेरी राय तो यह बनने लगी है कि कि ऐसे सर्वें निष्पक्ष मूल्यांकन करने के बजाय एक दल या गठबंधन के पक्ष में जनमत बनाने के प्रयास होते हैं. इसके पीछे क्या सौदा होता है, हमें नहीं मालूम. लेकिन इतना मालूम हो रहा है कि इन हवाई सर्वें की जगह जमीनी सच पर भरोसा किया जाए.
बिहार विस चुनाव का अंतिम फैसला 10 नवंबर को होगा, लेकिन अब तक के संघर्ष में महागठबंधन की रणनीतिक जीत हो चुकी है. राजनीति के माहिर खिलाड़ी अब तक जिस तेजस्वी को नौसिखिया कहकर खारिज कर रहे थे, अब वही उसके घोषित एजेंडा के इर्द गिर्द नाचने को मजबूर हो गये हैं. जब बिहार में दस लाख नौकरी की घोषणा राजद ने की तो पहले उसका मजाक उड़ाया गया, असम्भव घोषित किया गया. कितनी शर्मनाक बात है कि 15 वर्षों से राज चलाने वाले नीतीश कुमार विपक्ष से पूछते हैं कि नवनियुक्त लोगों के वेतन के पैसे कहां से आएंगे! उनकी इस आवाज को राज्य के उप मुख्यमंत्री व वित्त मंत्री सुशील मोदी ने भी दोहराई. इसका मतलब है कि अपने शासन काल में इन लोगों ने राज्य का खजाना बिल्कुल खाली कर दिया है. लेकिन इस घोषणा के जवाब में भाजपा जब 19 लाख रोजगार की बात करती है तो यह सवाल नहीं उठता. यह इन दोनों पार्टियों के भीतर उपजी हताशा का नतीजा है.
यहाँ अहम सवाल उठता है कि भाजपा ने यह घोषणा पहले क्यों नहीं की. सम्भवतः इसलिए कि 2014 में दो करोड़ प्रति वर्ष रोजगार की घोषणा, उसे लागू करने में हुई विफलता और चौतरफा आलोचना से वे घबराये हुए थे और उन्हें अनुमान नहीं था कि उनका "नवसिखिया" विरोधी इतना बड़ा एजेंडा रख देगा. उन्हें लगा था कि चुनाव जाति व धर्म तक ही केंद्रित रहेगा. एजेंडा बदल जाने से उनके हाथ पांव फूलने लगे हैं.
बात यहीं खत्म नहीं होती. हताशा का दूसरा लक्षण है कि केंद्र सरकार की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण आपाधापी में घोषणा कर देती हैं कि बिहार की जनता को कोरोना वैक्सीन मुफ्त में लगेगा. उन्हें इतना भी होश नहीं रहा कि वैक्सीन कब आएगा, यह निश्चित रुप से किसी को पता नहीं है. दूसरी बात, इस घोषणा के बाद पूरे देश में उभरी आलोचना का भी आभास भी उन्हें नहीं रहा. दिल्ली से लेकर मुंबई तक चारों तरफ इसपर थू-थू हुई. लेकिन इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता. चुनाव बाद उतनी ही बेशर्मी से कह देंगे, वह तो चुनावी जुमला था.
नीतीश यह प्रचार करते नजर आ रहे हैं कि उन्होंने शराब बंदी की, इसलिए लोग उन्हें हटाने का अभियान चला रहे हैं. वे गलत बोल रहे हैं. जाहिर है, यह चुनाव ही इसलिए हो रहा है कि जनता उचित समझे तो पुराने को हटाकर नए को सत्तासीन करे. इसलिए विपक्षी उन्हें हटाने का अभियान चला रहे हैं तो इसमें गलत क्या है! लेकिन जरा वे अपने गिरेबान में झांकें कि 2017 में बिहार की जनता और अपने सहयोगी राजद के साथ क्या किया था! राज्य की जनता ने उन्हें भाजपा के खिलाफ राजद के साथ सत्ता चलाने का आदेश दिया था. लेकिन इन दोनों के साथ उन्होंने विश्वासघात किया . आज जो भी हो रहा है वह उसीका दंड है.
अभी यह खेल बहुत लम्बा है. सत्तासीनों के पास बहुत सारे दांव पेंच अभी बाकी हैं, जिसमें थैली का खेल भी शामिल है. इसलिए इस प्रारम्भिक स्थिति को अंतिम निष्कर्ष तक पहुंचाना कठिन अभियान है जिसे जारी रखना होगा.
सत्ता संघर्ष में बिहार - 3
- डॉ रामकवींद्र
जिस दिन से लोजपा अध्यक्ष चिराग पासवान ने बिहार में नीतीश विरोधी राग अलापना शुरू किया और उनके दिवंगत पिता रामविलास पासवान केंद्र में मंत्री बने रहे, उसी दिन लग गया था कि इसके पीछे भाजपा की गहरी साजिश है. जैसे जैसे चुनावी समर आगे बढ़ रहा है, वैसे वैसे इस रहस्य से पर्दा उठता जा रहा है. पहले उम्मीद लगायी जा रही थी कि प्रधानमंत्री के दौरे से इस रहस्य से परदा उठ जायेगा. लेकिन उन्होंने अपने भाषण में इस विषय को छुआ तक नहीं तथा मामला और गहरा हो गया. लोजपा में आश्रय लिये भाजपा के दो बागी नेताओं का चुनाव (रामेश्वर चौरसिया और राजेंद्र सिंह) क्रमशः नोखा और दिनारा (दोनों सासाराम में) 28 अक्टूबर को हो जायेगा. खबर है कि इन दोनों क्षेत्रों में भाजपा कार्यकर्त्ता एनडीए की जगह लोजपा की मदद कर रहे हैं. राजेंद्र सिंह ताल ठोक रहे हैं कि इस क्षेत्र की भाजपा वे ही हैं, संगvठन उनके साथ है. रामेश्वर चौरसिया तो आगे बढ़कर दावा कर रहे हैं कि उनके साथ मोदी का आशीर्वाद है और नीतीश की स्थिति खिसियानी बिल्ली जैसी हो गयी है. ये दोनों क्षेत्र नमूना मात्र हैं, एनडीए के भीतर जमीनी स्थिति का बयान कर रहे हैं और यह सब भाजपा नेताओं की ओर से नीतीश को बार बार आश्वस्त करने के बाद हो रहा है.
जिस समय चिराग का प्लॉट रचा गया था, उस समय भाजपा नेताओं का आकलन था कि बिहार विस चुनाव केक वाक जैसा होगा और हमारे दोनों हाथों में लड्डू रहेंगे. इस आकलन का सबसे बड़ा आधार अतीत का उनका अनुभव था: जब जब राजद, जदयू और भाजपा में दो पार्टियां एकजुट हुई हैं, तब तब उस गठबंधन की जीत पक्की हो गयी है. इसका आधार जाति आधारित वोट पैटर्न था. इस सुविधाजनक स्थिति में नीतीश कुमार काफी कम सीट लेकर मुख्यमंत्री बन भी जाते हैं, तो लीडिंग पार्टनर की जगह उनकी भूमिका कठपुतली पार्टनर और कठपुतली मुख्यमंत्री की हो जाएगी. ऐसा नहीं होने की स्थिति में तो भाजपा के पौ बारह होंगे और भाजपा-लोजपा की सरकार बन जाएगी. कई राज्यों में हारने के बावजूद पिछले दरवाजे से सरकार बनाने की तिकड़म के आत्मविश्वास से लबरेज पार्टी का यह आकलन बिल्कुल बकवास भी नहीं था.
लेकिन इस व्यूह रचना के साथ मैदान में उतरते ही गड़बड़ स्थिति के संकेत मिलने लगे, जिसकी कल्पना तक वे नहीं कर सके थे. बिखराव में दिख रहा महागठबंधन ज्यादा एकजुट ढंग से मैदान में उतरा और एकजुट दिखनेवाला एनडीए अपनी दरार के साथ. लगता है, परिस्थिति इसे और चौड़ी कर रही है. लॉक डाउन की अवधि में पदयात्रा की मार से पीड़ित और केंद्र में भाजपा और राज्य में एनडीए सरकार की बेरुखी से जले-भुने लाखों बिहारी मजदूर बदले के अवसर की तलाश में थे. उसी तरह अच्छे दिन के इंतजार से ऊबे बेरोजगार युवा भी उतने ही बेचैन थे. महागठबंधन के कार्यक्रम में 10 लाख नौकरी के वादा से उनका आक्रोश ज्वालामुखी के लावा की तरह फूटता दीख रहा है. इससे भयभीत एनडीए ने 19 लाख नौकरी का आश्वासन दिया तो जरूर, लेकिन वह हास्यास्पद बनकर रह गया.
इस प्रकार चिराग पासवान दोहरी भूमिका में खड़े नजर आ रहे हैं, भाजपा के लिए चिराग और जदयू के लिए चिंगारी. अब तो तीसरी और चौथी स्थिति की भी कल्पना की जाने लगी है. यह अकारण नहीं है कि चिराग तेजस्वी पर काफी सॉफ्ट हैं और महागठबंधन चिराग को नजरअंदाज कर रहा है. सवाल है, अगर एनडीए सत्ता से काफी पीछे रह गया और महागठबंधन सत्ता के करीब पहुँच गया तब क्या होगा! उसी तरह अगर जदयू इस विश्वासघात के खेल में बुरी तरह पछाड़ खा गया तो क्या होगा! क्या वह भाजपा से गठबंधन तोड़ने का साहस दिखायेगा! इन सभी सवालों का अंतिम जवाब 10 नवंबर के बाद मिलेगा और असली चुनाव तभी हो पायेगा जिसमें थैलीशाह निर्णायक भूमिका निभाएंगे.
धर्म और जाति के धुंद में वर्ग संघर्ष सहायक - 1
- डॉ रामकवींद्र
देश में आर्थिक संकट का एक भयावह दौर दस्तक दे रहा है जिसके विश्वव्यापी होने की सम्भावना जताई जा रही है और सत्ता की बागडोर थामे भाजपा, आरएसएस की जोड़ी लफ़्फ़ाजी का सहारा लेकर चुनाव दर चुनाव अपनी जीत सुनिश्चित करने का सपना देख रही है. पहले वे पांच से दस सालों के सपने बेचा करते थे, लेकिन अब वे पूरे पच्चीस साल के सपने बेचने लगे हैं जिसका नाम उन्होंने अमृत काल दे रखा है. सवाल यहीं से शुरू होता है, किसे अमृत काल का अमृत कलश मिलेगा और किसे विष का प्याला!
इस उलझन को सुलझाने का सरल उपाय है. पिछले आठ सालों के इनके वादों, इनकी घोषणाओं और उन सबके नतीजों पर नजर डाल लीजिये, तस्वीर साफ हो जाएगी. इसी अवधि में प्रधानमंत्री जी के मित्र पूँजीपति अडानी एशिया के सबसे बड़े अमीर बन गये, पूंजीपतियों के लगभग दस लाख करोड़ के कर्ज बट्टा खाते में डाल दिये गये और भगोड़े पूंजीपतियों के कारण देश की अरबों की सम्पत्ति डूब गयी. दूसरी ओर मजदूरों की मजदूरी अपेक्षाकृत घटी, उनके ट्रेड यूनियन अधिकार घटे, किसानों की हालत खराब हुई, महंगाई व बेरोजगारी बढ़ी और जनता के बीच गरीबी-भुखमरी बढ़ी.
इन सबके बावजूद इस अंतरविरोधी तस्वीर की मुकम्मल राजनीतिक समझ हासिल करना इतना आसान नहीं है. इसके लिए 'तथ्य से सत्य की तलाश' की कला में महारत हासिल करनी पड़ेगी. यह काम इसलिए कठिन हो जाता है कि तथ्य पर पर्दा डालने के लिए सैकड़ों-हजारों पूंजीवादी अर्थशास्त्रियों, समाजविज्ञानियों, राजनेताओं व आरएसएस कार्यकर्ताओं की विशाल फौज काम कर रही है.
जनता को गुमराह करने के लिए भाजपा और संघ के अन्य संगठनों के पास दो हथकंडे हमेशा तैयार रहते हैं : पहला कि भाजपा के अतीत के वादों और घोषणाओं को चर्चा से बाहर कर दो और इतना दूरगामी लक्ष्य रखो जो कुछेक पीढ़ियों के बाद हासिल हो सकती हों या नहीं भी; और दूसरा कि रोजी-रोटी जैसी लोगों की बुनियादी आर्थिक जरूरतों और व्यवस्था के आर्थिक संकट को जाति और धर्म के विवाद के धुंद में ओझल कर दो. इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए सरकार के भोंपू मीडिया द्वारा इस आशय का उद्घोष करवाया जा रहा है कि हिंदुत्व खतरे में है, देश खतरे में है और ऐसी स्थिति में रोजी-रोटी और जनवाद की मांग देशद्रोह के समान है. हमारे देश में कट्टर हिंदुत्व के वर्तमान दौर में राजसत्ता और संघ परिवार के संयुक्त निशाने पर तीन दुश्मन हैं : अल्पसंख्यक (खासकर मुस्लिम और ईसाई), दलित और कम्युनिस्ट. इन सबके खिलाफ दुष्प्रचार जारी है और जाहिर है कि इनमें सबसे बड़े और सबसे खतरनाक दुश्मन कम्युनिस्ट ही हैं.
पहले दर्जे के धुंद का सबसे आदर्श और ताजा उदाहरण अमृत महोत्सव वर्ष के स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री का भाषण है जिसमें उन्होंने 25 साल बाद के सपने तो दिखाए, लेकिन आठ साल पहले दिखाए गये सपनों का जिक्र तक नहीं किया. विपक्षी नेता और आलोचक प्रधानमंत्री पर सपनों का सौदागर और जुमलेबाज होने का आरोप ठीक ही लगा रहे हैं. लेकिन संघ परिवार और भक्तों की एक विशाल टोली है जो गोदी मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक उनकी घोषित योजनाओं की प्रशंसा के पुल बाँधने मे कोई कोर कसर नहीं छोड़ेगी. झूठ के इस गहन अंधकार में सत्य थोड़ी देर के लिए गुम हो जाता है और मानव इतिहास का यह 'थोड़ी देर' एक मनुष्य के सक्रिय जीवन के बराबर या कभी कभी उससे ज्यादा भी हो सकता है. यही बात अमृतकाल के पच्चीस वर्ष के बारे में कही जा सकती है जब आज की घोषणाओं के खोखलेपन पर जवाब देने के लिए प्रधानमंत्री जी रह भी पाएंगे या नहीं. उस समय उनकी खूबियों और खामियों का अंतिम फैसला तो समाजशास्त्री और इतिहासकार करेंगे
अब धुंद फैलाने के दूसरे तरीके को देखा जाय. फिलहाल दुनिया और देश के जनपक्षीय अर्थशास्त्री देश के आर्थिक संकट के खतरे पर चिंता व्यक्त कर रहे हैं तो संघ परिवार के जनविरोधी देशद्रोही तत्व हिंदुत्व पर खतरा का शोर मचाये जा रहे हैं. लव जेहाद, जनसंख्या जेहाद, यूपीएससी जेहाद आदि पर हंगामा का दृश्य जगजाहिर है. फिलहाल गुजरात के डांडिया में मुस्लिम युवकों के प्रवेश और उनकी पिटाई का मामला सर्वाधिक चर्चा में है. इसमें गोदी मीडिया की अग्रणी भूमिका भी जगजाहिर है. दूसरी ओर दिल्ली में आम आदमी पार्टी सरकार के एक मंत्री इसलिए भाजपाइयों के हमले के शिकार हो रहे हैं कि उन्होंने बौद्ध दीक्षा समारोह में भाग लेकर अम्बेडकर के दीक्षांत सूत्रों को दोहराया जिसमें हिन्दू देवी देवताओं को मानने से इनकार करने की घोषणा है. कितना आश्चर्यजनक है कि भाजपा के हो हल्ला के दबाव में मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने अपने मंत्री राजेंद्र पाल गौतम का इस्तीफा ले लिया है. अपने इस आचरण से उन्होंने एक बार फिर साबित कर दिया कि वे आरएसएस की बी टीम बन चुके हैं.
जाहिर है कि अम्बेडकर ने भी हिन्दू देवी देवताओं को मानने से इनकार किया था, नहीं तो वे हिन्दू धर्म छोड़ते ही क्यों! कितना घटिया विरोधाभास है कि हिन्दू देवी देवताओं के खिलाफ बोलने और लिखनेवाले अम्बेडकर भाजपाइयों आदर्श पुरुष हैं और वैसा ही आचरण करनेवाले मंत्री गौतम घृणापुरुष बन गये हैं. इस विरोधाभास का कारण बिल्कुल साफ है अम्बेडकर का नाम जपने से दलित वोट मिलेगा और आम आदमी पार्टी के इस अम्बेडकरवादी मंत्री को फजीहत करने से गुजरात विस चुनाव में ध्रुवीकरण से वोट बढेगा. मामला न देश का है, न ही धर्म या भगवान का, मामला सिर्फ कुर्सी का है. राष्ट्रवाद, धर्म और भगवान जैसे आकर्षक नारे सिर्फ कुर्सी हथियाने के उनके औजार भर है.
अंत में हम यह कहना चाहते हैं कि कुर्सी (यानी सत्ता कब्ज़ा) के खेल में पूँजी, जाति, धर्म और वर्ग के अंतःसम्बन्ध को जब आप केंद्र में रखकर विश्लेषण की कला हासिल कर लेंगे तो धीरे धीरे तथ्य से धुंद को हटाकर 'तथ्य से सत्य की तलाश' की कला में भी महारत हासिल कर लेंगे.
धर्म और जाति के धुंद में वर्ग संघर्ष सहायक - 2
- डॉ रामकवींद्र
जब विकास की बात होती है तो पूंजीवादी खेमे के प्रतिनिधियों (अर्थशास्त्रियों, राजनेताओं से लेकर विचारकों तक) के जेहन में तीन बातें आती हैं : सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की विकासदर में वृद्धि, विदेशी पूँजी के आवग में वृद्धि और विदेशी मुद्रा भंडार में वृद्धि. ये मापदंड बिल्कुल एकतरफा हैं और सिर्फ पूँजीपति वर्ग के हितों का ख्याल रखते हैं. मजदूर वर्ग एवं अन्य शोषित-पीड़ित जनता के हित इनमें व्यक्त नहीं होते. न तो यह पता चलता है कि रोजगार सृजन की स्थिति क्या और न ही इस बात की जानकारी मिलती है कि देश में लोककल्याण ( मसलन भोजन, आवास, शिक्षा, चिकित्सा आदि) कार्यक्रम की स्थिति कैसी है. कुछ दिनों पहले एक खबर आयी थी कि विश्व भूख सूचकांक में भारत का स्थान बांग्लादेश से भी नीचे है. यह है विकास का जनविरोधी पहलू का नमूना.
अब उपर्युक्त तीनों मापदंडों के आधार पर भी देश की आर्थिक स्थिति चरमराती नजर आ रही है. विकास दर लड़खड़ा रही है, विदेशी पूँजी का प्रवाह मंद है और देश का विदेशी मुद्रा भंडार घटने लगा है.
विश्व बैंक ने वर्ष 2022-23 में देश की विकास दर को एक प्रतिशत घटाकर 6.5% तक पंहुचा दिया है. यह आंकड़ा इसी साल के जून के अनुमान से एक प्रतिशत कम है. आईएमएफ ने भी देश की विकास दर का अनुमान घटाया है. 8.4% से घटाकर 7.6% पर ला दिया है. पिछले साल (2021-22) में यह विकास दर 8.7% थी. सरकार समर्थक अर्थशास्त्री इसपर गदगद होकर सुनहरे भविष्य का सपना दिखाने लग गये थे तो विरोधी खेमे के अर्थशास्त्री निराशा व्यक्त कर रहे थे.
उनका मानना था कि यह आंकड़ा 2020-21 के आंकड़े की तुलना में तो ठीक है, लेकिन हम नहीं भूल सकते कि उस साल अर्थव्यवस्था में 6% से ऊपर का संकुचन हुआ था, इसलिए यह अर्थव्यवस्था की सही तस्वीर पेश नहीं कर सकता. ऐसी स्थिति में उनका कहना था कि सही स्थिति को समझने के लिए जरूरी है कि इसकी तुलना कोविड महामारी के पहले के आंकड़ों से की जाय और तब विकास दर का यह आंकड़ा महज 1.5% ठहरता है.जाहिर है, यह संख्या इतराने की स्थिति नहीं पैदा करती.
अर्थशास्त्रियों के शब्दजाल से बाहर निकलकर जीडीपी की असली आकार को देखा जाय. वर्ष 2019-20 में भारत का जीडीपी ₹ 145.16 लाख करोड़ का था, लेकिन 2020-21 में घटकर ₹135.6 लाख करोड़ पर सिमट गया. गणना करने पर यह संकुचन 6.6% होता है और इस दयनीय स्थिति के लिए महामारी अवधि का लॉक डाउन जिम्मेदार है. अफसोस की बात है कि सरकारी खेमे में इसपर कोई चर्चा नहीं है, विरोधियों के सवालों का कोई जवाब नहीं.
यह तस्वीर पिछले तीन वर्षों से चल रही है. अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियो ने भारत की तस्वीर को निचले पायदान पर स्थिर कर दिया है. सरकार के लिए यही संतोष की बात है कि यह रेटिंग और नीचे नहीं गिर रहा है. फिर भी, इस स्थिर बदतर स्थिति में पहुँचने के लिए प्रति व्यक्ति कम आय और सरकार पर कर्ज का भारी दबाव जिम्मेदार है. फिर भी सरकार और उसके आर्थिक सलाहकार आश्वस्त हैं कि उनकी स्थिति सुदृढ़ है क्योंकि उनके पास विदेशी मुद्रा भंडार पर्याप्त है और वे अंतरराष्ट्रीय देनदारियों को पूरा करने में सक्षम हैं. लेकिन इस मामले में भी स्थिति बहुत सुदृढ़ नहीं है. अंग्रेजी दैनिक टाइम्स ऑफ़ इंडिया (7 अक्तूबर, 2022) के अनुसार भारत का विदेशी मुद्रा भंडार एक सौ अरब डॉलर घटकर 545 अरब डॉलर पर पहुंच गया है और इस साल के अंत तक 523 अरब पहुंच जाने की उम्मीद है.
मतलब यह कि पूंजीवादी विकास के उपर्युक्त तीनों मापदंडों पर देश की अर्थव्यवस्था पतनोन्मुख है. अब तो सरकार के प्रवक्ता भी इस सच को स्वीकार करने के लिए बाध्य हैं. तब वे अपनी लाज बचाने के लिए इस तर्क का सहारा लेते हैं कि यह विश्वव्यापी परिघटना है और उसमें हमारी स्थिति कई देशों की तुलना में काफी बेहतर हैं. इस मामले में वे अर्द्धसत्य के नजदीक हैं. आज ही की खबर है जिसमें अमेरिका के सबसे बड़े निवेशक बैंक जे पी मॉर्गन के सीईओ जेमी दिमोन ने दुनिया को चेता दिया है कि 6-9 महीनों में विश्वव्यापी मंदी का दौर आ सकता है. यह आशंका महज एक व्यक्ति या एक संस्था की नहीं, बल्कि विश्व पूंजीवादी व्यवस्था की है. इसके लिए वे मुख्यतः तीन करकों को जिम्मेदार मानते हैं : आसमान छूती महंगाई, बैंक के सूद दर में वृद्धि, रूस यूक्रेन युद्ध.
विश्व स्तरीय इन तीनों करकों के निवारण में भारतीय पूंजीपति वर्ग के प्रतिनिधि कोई निर्णायक भूमिका निभाने की स्थिति में नहीं हैं. लगता है, इसीलिए हमारे प्रधानमंत्री जी इन सभी "चिंताओं से मुक्त होकर" बाबा विश्वनाथ और महाकाल का अलख जगाने में मशगूल हैं. इसका अर्थ यह नहीं कि वे 'झोला उठाकर चल देने' की तैयारी कर रहे हैं, इसके विपरीत वे लोगों को कट्टर हिंदुत्व के फासिस्ट सांचे में ढालकर वापसी की तैयारी कर रहे हैं. गजब विडंबना है. जिन्हें राजनीति करना था वे भक्ति का ढोंग कर रहे हैं और भक्ति का दिखावा करनेवाले संत सड़क पर एक समुदाय को सबक सिखाने का उद्घोष. इस विरोधाभास से देश को बाहर निकालने का दायित्व क्रांतिकारी और जनतांत्रिक शक्तियों पर हैं.
भाजपा के गुंडों द्वारा किसानों की निर्मम हत्या का विरोध करें
(नवजनवादी लोकमंच का बयान)
नवजनवादी लोकमंच कल लखीमपुर खीरी में भाजपाई गुंडों द्वारा अपनी गाड़ी से कुचलकर पांच किसानों की निर्मम व नृशंस हत्या की घोर निंदा करता है. यह ऐसा राक्षसी कृत्य है जिसकी निंदा के लिए शब्द कम पड़ जायेंगे.
कल लखीमपुर खीरी के किसान अपने घोषित कार्यक्रम के अनुसार उत्तरप्रदेश के उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य के कार्यक्रम के विरोध में उन्हें काला झंडा दिखाने के लिए जमा हुए थे. यही उनका "अपराध" था जिसके दंडस्वरूप उन्हें कुचल दिया गया. जाहिर है कि मौर्य के साथ केंद्रीय गृह राज्यमंत्री अनिल मिश्र भी थे. मंत्रीद्वय तो उधर से नहीं गुजरे लेकिन इसी बीच उनकी दो गाड़ियों में आये गुंडों ने किसानों को कुचल दिया जिसमें पांच के मरने और कई लोगों के घायल होने की खबर है. कुचलने के आरोपियों में अनिल मिश्र के पुत्र आशीष मिश्र भी शामिल हैं. लेकिन अनिल मिश्र इससे इंकार कर अपने पुत्र का बचाव कर रहे हैं. इतना ही नहीं स्थिति की गंभीरता को समझने के बजाय सरकार किसानों को बदनाम करने और अपने गुंडों को बचाने में लगी है. वह किसानों पर गाड़ी फूँकने और भाजपा कार्यकर्त्ताओं की हत्या का आरोप लगा रही है.
इस स्थिति से निबटने के नाम पर लखनऊ में सभी विपक्षी नेताओं को घर में नजरबंद कर लिया गया है, दूसरे राज्यों के कोंग्रेसी नेताओं को लखनऊ हवाई अड्डे पर उतरने नहीं दिया जा रहा है तथा यहाँ और लखीमपुर खीरी में इंटरनेट सर्विस बंद कर दी गयी है. याद कीजिये, 2019 में जम्मू और कश्मीर में ये ही सारे रास्ते अपनाये गये थे. तब कहा गया था कि राष्ट्र हित में आतंकवाद से लड़ने के लिए ये कठोर कदम उठाये गये हैं. लेकिन पूरे देश के लिए सच यही है कि देशी-विदेशी पूँजी की सेवा के लिए जनता के खिलाफ ऐसे गलाकाटू कदम उठाये जाते हैं. इसका जवाब जनता को ही देना होगा.
ऐसा लगता है कि मोदी सरकार किसानों के साथ वार्ता कर समाधान खोजने की जगह अपने गुंडों के दमन से किसानों का मनोबल तोड़ देना चाहती है. लेकिन वह गलतफहमी में है. इन दस महीनों में किसान संगठनों के बीच एकता भी बढ़ी है और उसका देशव्यापी प्रसार भी हुआ है. हरियाणा की खट्टर सरकार का जब जब किसानों से टकराई उसे मुंह की खानी पड़ी है. लखीमपुर खीरी में योगी सरकार को झुकना ही होगा.
किसान आंदोलन ने आरएसएस-भाजपा की केंद्र से लेकर राज्य तक की भाजपा सरकारों के जनतांत्रिक मुखौटे को फाड़ दिया है. यह कैसा जनतंत्र है जिसमें देश का गृह राज्यमंत्री वक्तव्य देता है कि मैं दो मिनट में सबको ठीक कर दूंगा, मुख्यमंत्री कार्यकर्ताओं को उकासता है कि लाठी डंडे के साथ बाहर निकलो, जेल बेल से मत डरो, जेल से निकलोगे तो बड़ा नेता बनोगे आदि. कौन तोड़ रहा है कानून व्यवस्था को? सरकार या किसानों का शांतिपूर्ण आंदोलन!
इस परिस्थिति में किसान आंदोलन का दायित्व और बढ़ गया है और यह राजनीतिक जिम्मेदारी उसके कंधों पर आ गयी है कि मजदूरों और समस्त उत्पीड़ित जनता के साथ एकता कायम कर इस गुंडा राज को खत्म कर जनतंत्र स्थापना क़ी दिशा में कदम बढ़ाये. जनता का कर्तव्य बनता है कि इस आपराधिक कृत्य के खिलाफ पूरे देश में कार्यक्रम आयोजित करे, अन्यथा अवसर हाथ से निकल जायेगा.
भाजपा राज हो बर्बाद, उत्तरप्रदेश विस चुनाव में में योगी सरकार का नाश करो. इसी दृढ संकल्प के साथ आगे बढ़ने का हम आह्वान करते हैं.
कन्हैया की छलांग
- डॉ रामकवींद्र
कन्हैया कुमार एक बार फिर चर्चा में हैं. इस बार भाकपा छोड़कर कांग्रेस में जाने को लेकर. उनकी इस हरकत से बहुत लोगों को निराशा हुई है. यह कहना निराशा की पराकाष्ठा ही माना जायेगा कि तमाम वामपंथी पार्टियों के विचार कन्हैया जैसे ही हैं. फिर भी इसमें कुछ संदेश है जिसे समझने की जरूरत है. वामपंथी खेमे में बहुत थोड़े से लोग हैं जिन्हें कन्हैया के आचरण से कोई आश्चर्य नहीं हुआ है. इस परिस्थिति को समझने के लिए कन्हैया कुमार के उदय से लेकर अब तक की राजनीतिक यात्रा पर गौर करने की जरूरत है.
देश के राजनीतिक क्षितिज पर कन्हैया का उदय 2016 में हुआ. उस समय वे जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष थे. वे भाकपा की राजनीति से प्रभावित छात्र संगठन एआईएसएफ के सदस्य थे. यह विश्वविद्यालय बौद्धिक विमर्श के लिए देश और दुनिया में प्रख्यात रहा है और वहां का माहौल भी अन्य संस्थानों की तुलना में ज्यादा खुला और जनतांत्रिक रहा है. 2016 में वहां अफजल गुरु की स्मृति सभा हो रही थी जिसके आयोजन में जम्मू और कश्मीर के छात्र मुख्य भूमिका निभा रहे थे. उस कार्यक्रम में कथित रुप से "भारत तेरे टुकड़े होंगे" के नारे लगने की बात चर्चा में आयी. ये नारे कैसे लगे किसने लगाए यह आज तक स्पष्ट नहीं हो सका है. उल्लेखनीय है कि उस समय तक केंद्र सरकार के सहयोग से इस कैम्पस में कट्टर हिंदुत्ववादी तत्वों की सरगर्मी तेज होने लगी थी. कन्हैया उपर्युक्त नारेबाजी में रहे हों या न रहे हों लेकिन वामपंथी धारा से जुड़ाव के कारण वे संघी संगठनों के निशाने पर जरूर थे. इस परिस्थिति में वे उपर्युक्त मामले में दर्ज मुकदमे में राजद्रोह के अभियुक्त बनाये गये. दमन की इस कार्रवाई में देश और दुनिया की जनतांत्रिक शक्तियों के बीच उनकी प्रतिष्ठा खूब बढ़ी.
जब वे राजनीति में शामिल हुए तो उनकी स्वाभाविक मंजिल भाकपा थी और वे उसमें शामिल हो गये. भाषण देने की अपनी बेहतर कला के कारण वे देश के विभिन्न संस्थानों से लेकर राजनीतिक मंचों तक बुलाये जाने लगे और रातों रात राष्ट्रीय स्तर के बड़े नेता बन गये. उस समय तक वे "जय भीम, लाल सलाम" के नारे का भरपूर उपयोग करने लगे थे. निस्संदेह यह मार्क्सवाद और अम्बेडकरवाद के बीच बेमेल खिचड़ी पकाने की कोशिश थी. अब तो वामपंथ के बड़े खेमे में यह खिचड़ी बड़े चाव से परोसी जा रही है. किसी का ध्यान इसके दूरगामी दुष्परिणाम की ओर नहीं है, जो वामपंथी रंग रोगन के साथ संगठन को पूँजीवाद या निम्नपूँजीवाद का शिकार बना देगी.
भाकपा भी अपने उदीयमान सितारे से बहुत आशान्वित हो गयी थी. यही कारण है कि उन्हें अचानक पार्टी की राष्ट्रीय कौंसिल का सदस्य बना लिया गया, लोकसभा चुनाव में बेगूसराय से उम्मीदवार बना दिया गया. किसी ने यह सोचने की कोशिश नहीं की कि हर पूँजीवादी नेता की तरह उनके भाषण में भी गहराई से ज्यादा चतुराई रहती है. उस पार्टी को इससे कोई परेशानी इसलिए भी नहीं थी कि वह तो खुद वामपंथी धारा की पूँजीवादी पार्टी बन गयी थी. लेकिन बेगूसराय चुनाव ने यह संदेश दे दिया कि संगठन के बिना सिर्फ भाषण और व्यक्तित्व से चुनाव नहीं जीता जा सकता. वस्तुतः कुछ भी हासिल नहीं किया जा सकता.
कन्हैया सबसे ज्यादा चर्चा में आये थे जब उन्होंने संबित पात्रा के टीवी डिबेट में स्तालिन मुर्दाबाद का नारा लगाया. इसपर भाकपा ने कोई सवाल नहीं उठाया. कई वामपंथी संगठन और नेता असहज तो हुए लेकिन किसे बड़े और जाने माने संगठन ने कन्हैया कुमार और भाकपा के खिलाफ वैचारिक हमला नहीं बोला. हमारे जैसे कुछ छोटे संगठनों ने आवाज उठायी तो उसे चुप्पी में दबाने की कोशिश की गयी. कुछ लोगों ने तो परिस्थिति का हवाला देकर इस कृत्य को उचित ठहराने की कोशिश तक की. आज लोग अपनी निराशा व्यक्त करते हुए यही दोहरा रहे हैं कि जो स्तालिन मुर्दाबाद कह सकता है, उससे क्या आशा की जाय! अब सांप गुजर जाने के बाद लकीर पीटने से क्या फायदा!
इस पूरे आकलन के बाद कन्हैया का कांग्रेस में शामिल होना सचमुच किसी आश्चर्य का विषय नहीं रह जाता है. अपने राजनीतिक उत्थान के लिए उन्होंने बड़ा प्लेटफार्म चुन लिया. कल जरूरत पड़ेगी और सम्भव होगा तो वे इससे भी बड़ा प्लेटफार्म खोज लेंगे. वे कुछ भी कर सकते हैं, कहीं भी जा सकते हैं. लेकिन वामपंथी खेमे के सामने एक अहम् समस्या रह गयी है कि जय भीम लाल सलाम और भगत सिंह अम्बेडकर की वैचारिक खिचड़ी क्रांति का मार्ग आलोकित करेगी या एक दलदल साबित होगी. इस अर्थ में यह आरोप सही लगता है बहुतेरे वामपंथी संगठनों की सोच कन्हैया कुमार जैसी है. यह एक सबक है और चेतावनी भी.
हिजाब पर विवाद
- डॉ रामकवींद्र
इस्लामी गणराज्य ईरान में हिजाब के खिलाफ बड़ा प्रतिरोध आंदोलन चल रहा है, जो सरकार के दमन के बावजूद थमने का नाम नहीं ले रहा है. यह आंदोलन भले ही ठीक से हिजाब नहीं पहनने के "अपराध"में महिलाओं के ड्रेस कोड पर नजर रखनेवाली पुलिस की ज्यादती से 22 वर्षीया युवती मेहसा अमिनी की मौत से शुरू हुआ हो, लेकिन अब वह इस्लामी गणतंत्र के खात्मे की मांग तक पहुँच गया है. उनकी नजर में महिला अधिकार के संदर्भ में इस्लामी शासन में जनतांत्रिक सुधार की गुंजाईश नहीं रह गयी है.
ईरान में हिजाब विरोधी संघर्ष 1979 में इस्लामी गणराज्य की स्थापना और महिलाओं के ड्रेस कोड के निर्धारण के साथ ही शुरू हो गया था. पहले ये संघर्ष इक्के दुक्के होकर रह जाते थे और व्यापक जनसमर्थन के अभाव में दम तोड़ देते थे, लेकिन मेहसा अमिनी की मौत ने संघर्ष की चिंगारी को दावानल का रूप दे दिया है. महिलाओं के निर्धारित ड्रेस कोड के खिलाफ ईरान के करीब 80 शहरों में जन प्रदर्शन हो चुके हैं, जिनमें दर्जनों लोग मारे गये और सैकड़ों घायल हुए हैं. कुछेक समाजशास्त्रियों की राय इस दावानल के पीछे ईरान का आर्थिक संकट भी जिम्मेदार है.
यह विरोध प्रदर्शन अब ईरान से बाहर के देशों में भी फैल चुका है. प्रतिरोध का स्तर यह है कि महिलाएं हिजाब जला रही हैं और अपने बाल काटकर फेंक रही हैं. संभवतः किसी इस्लामी देश में महिलाओं की आजादी का सबसे बड़ा और तीखा आंदोलन बन गया है यह. हालांकि ईरान के राष्ट्रपति से लेकर सुप्रीम कोर्ट के जज तक अमिनी के लिए न्याय का आश्वासन दे रहे हैं, लेकिन लोग इस पर यकीन नहीं कर पा रहे हैं. सम्भव है कि ईरान सरकार फिलहाल इस आंदोलन का दमन करने में सफलता हासिल कर ले, लेकिन भविष्य में इस आंदोलन की मांगों को उसे पूरा करना ही होगा. यही नियति है.
हमारे देश में हिजाब विवाद उल्टी दिशा में बढ़ रहा है. यहाँ जबरन हिजाब हटवाया जा रहा है. विवाद कर्नाटक से शुरू हुआ जहाँ स्कूल जाने वाली कुछ लड़कियों ने स्कूल ड्रेस कोड के अनुसार हिजाब के बिना स्कूल जाने से इनकार कर दिया था. कर्नाटक हाई कोर्ट में फैसला हिजाब के खिलाफ गया. अब सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हो चुकी है और फैसले का इंतजार है. विवाद का मुख्य मामला यह है कि क्या हिजाब इस्लाम का अनिवार्य अंग है और क्या किसी शिक्षण संस्थान को ड्रेस कोड के नाम पर हिजाब जबरन हटवाने का अधिकार है?
इन सवालों के माकूल जवाब खोजने में मेरी कोई अभिरुचि नहीं है क्योंकि ईरान की महिलाओं ने इस सवाल का जवाब दे दिया है कि इस्लाम चाहे जो कहे हमलोग इस परम्परा को ढोने के लिए तैयार नहीं हैं और इसे जबरन हमारे ऊपर थोपा नहीं जाये. उनकी यह मांग सही है.
हम धर्म के नाम पर किसी भी रस्म रिवाज को जबरन थोपे जाने का विरोध करते हैं, साथ ही यह Cमांग करते हैं कि धर्म को राजनीति से अलग कर इसे निजी मामला घोषित किया जाय और ईश निंदा को अपराध नहीं माना जाय. जैसे ही धर्म शुद्धतः निजी मामला बन जायेगा, वैसे ही हिजाब पहनना और नहीं पहनना भी महिलाओं की निजी इच्छा का विषय हो जायेगा.
भाषा पर गर्व
(21st Feb. 2022)
- डॉ रामकवींद्र
भाषा पर गर्व, भाषा की गरिमा, भाषा का अधिकार ये सारी बातें अच्छी हैं. देश की जनता ने स्वतंत्रता संघर्ष में इस गौरव का अनुभव भी किया था I लेकिन आज कल बौद्धिक समाज जिसका बड़ा हिस्सा मध्यम वर्गीय है, दोहरे मापदंड पर जीने को अभिशप्त है. अपने आदर्श के रूप में वह भाषा पर गर्व करता है लेकिन वास्तविक जीवन में ठीक उल्टा आचरण करता है I अपने आदर्श में वह मातृभाषा की बात करता है, लेकिन अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में पढ़ाना बेहतर समझता है I इसलिए मातृभाषा के स्कूल दम तोड़ रहे हैं और अंग्रेजी माध्यम के अधकचरे स्कूल गावों तक में कुकुरमुत्ते की तरह पसरे जा रहे हैं. ऐसा इसलिए है कि ऊँची शिक्षा के सारे कोर्स अंग्रेजी में पढ़ाये जाते हैं, विदेश जाने के दरवाजे इसी माध्यम से खुलते हैं और अंग्रेजी माध्यम में पढ़ने से बेहतर नौकरी की संभावना बढ़ जाती है I यह हमारे समाज और देश का सच है जो मध्यम वर्गीय आदर्श और अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस को मुंह चिढ़ाता है I
विदेशी पूँजी और प्रौद्योगिकी के आधार पर विकसित किसी देश का हश्र इससे भिन्न नहीं हो सकता I हमारा देश ऐसे दोहरे मापदंड पर जीने का आदर्श बन गया हैI 1990 के दशक में आए बदलावों के बाद इस दोहरेपन का विकास ज्यादा तेज रफ़्तार में हुआ है और शिक्षा के निजीकरण ने इसमें बड़ी भूमिका निभाई है I ऐसी स्थिति में झारखण्ड इसका अपवाद नहीं हो सकता I
जरा गौर फरमाइए, झारखण्ड में झारखण्डी भाषाओं के अधिकार की बात बहुत होती है लेकिन राज्य बनने के बीस साल बाद भी रांची विश्वविद्यालय के जनजातीय भाषा विभाग में कितनी प्रगति हुई है I अखबारों से तो पता चलता है कि उसकी हालत बदतर ही हुई है जबकि मातृभाषा को शिक्षा के मजबूत माध्यम बनाने के लिए, उसका इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार करने के लिए विश्वविद्यालय में इन भाषाओं के विकास पर रिसर्च तेज होना चाहिए था I इस दिशा में कदम बढ़ाने से झारखण्ड की सरकारों को कौन रोक रहा है! सिर्फ अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मना लेने से कुछ नहीं होगा I इसका फल तभी मिलेगा जब जमीन पर मातृभाषा विकास की दिशा में काम भी हो और उसमें तेजी लाने के लिए अंतरराष्ट्रीय समारोह का आयोजन भी I
सत्ता और धर्म की आड़ में छुपे अपराधी
- डॉ रामकवींद्र
उत्तराखंड के ऋषिकेश में एक रिसॉर्ट की रिसेप्शनिस्ट अंकिता भंडारी की हत्या के खुलासे से भाजपाई रामराज का आपराधिक चेहरा एकबार फिर सामने आ गया. उसके हत्यारे भाजपा नेता (अब निष्कासित) और रिसॉर्ट का मालिक विनोद आर्य का बेटा पुलकित आर्य और उसके दो दोस्त हैं. पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया है.
इसी अवधि में माननीय गृहमंत्री अपने दो दिवसीय बिहार दौरे में वहाँ के "जंगल राज" को कोसने में पीछे नहीं रहे. सवाल है कि क्या गृहमंत्री की जुबान इस अपराध के खिलाफ भी उसी अंदाज में खुलेगी! यह महज हत्या का मामला नहीं है, बल्कि रिसॉर्ट बिजनेस को आगे बढ़ाने के लिए एक युवती पर देह व्यापार के लिए दबाव देने का मामला है जो सामाजिक दृष्टि से हत्या से भी ज्यादा घिनौना और खतरनाक है.
सत्ता की नशा में डूबे गृहमंत्री (और प्रधानमंत्री) को यह बात भले समझ में न आए, लेकिन उत्तराखंड (खासकर ऋषिकेश) की जनता इस सच को समझ रही है. तभी तो लोगों ने इस रिसॉर्ट में आग लगा दी और अंकिता भंडारी के परिवार से मिलने गयी भाजपा की विधायिका का भी विरोध किया और उनकी गाड़ी में तोड़ फोड़ कर दी. देश में सबसे "लोकप्रिय" पार्टी के खिलाफ जनता की यह घृणा बताती है कि पूंजीवादी राजनीति में कुछ भी जनता के हक में नहीं रह गया है, दिखावा चाहे जीतना हो रहा हो.
वैसे हमलोगों को इस गलतफहमी में नहीं रहना चाहिए कि जनता जनसमर्थन के बल पर राज कर रही है. उसकी सत्ता के चार स्तम्भ हैं: चुनावी बांड से अर्जित अकूत काला धन, धार्मिक विद्वेष और विभाजन, बिकाऊ राजनीतिक नेता और गुलाम मानसिकता की नौकरशाही. यही है आज के भारतीय जनतंत्र का सच जिसपर टुकड़खोर बुद्धिजीवियों की फौज गुमान करती है और देश की जनता इस चंगुल में फंसी है. इस स्थिति को बदलने का संघर्ष तेज करें.
स्तलिन के बिना समाजवाद की कल्पना नहीं की जा सकती -1
- डॉ रामकवींद्र
भाकपा माले (लिबरेशन) से Kavita Krishnan के इस्तीफा, और समाजवाद व मार्क्सवाद के खिलाफ उनके अभियान को पूंजीवादी मीडिया और सोशल मीडिया ने काफी तरजीह दी है.बीबीसी व यू ट्यूब में उनका इंटरव्यू चला और 'दि वायर' में उनकी बातों के आधार पर हमारे देश में मार्क्सवाद के बैनर में कार्यरत संशोधनवादी खेमे की पूरी एक्स-रे निकाल दी गयी जिससे पता चलता है कि सड़न कितना भयावह है और बीमारी कितनी खतरनाक है.
इस आलोक में हमें यह भी देखना होगा कि इस बीमारी की छूत क्रांतिकारी खेमे को कितना प्रभावित कर चुकी है, कर रही है और इसका इलाज क्या होगा? कविता कृष्णन स्तालिन की आड़ में समाजवाद पर हमला करने वाली न तो पहली बुद्धिजीवी हैं और न अंतिम होंगीं, बल्कि जिन तथ्यों व तर्कों का सहारा उन्होंने लिया है, वे उनके संशोधनवादी पूर्वजों द्वारा पहले ही इस्तेमाल किये जा चुके हैं, और सब के सब घिसे-पिटे और पुराने हैं.
'दि वायर' के लेखक ने कविता के बहाने उनके भारतीय पूर्वजों की एक सूची तैयार कर दी और इशारों में यह समझा दिया कि उनके हश्र क्या हुए हैं और इनका हश्र क्या होगा!
जितने "विद्वान" इस राह पर गये, वे मार्क्सवाद-लेनिनवाद से इतर कोई नया सिद्धांत नहीं दे पाये. उल्टे 1960 के दशक में लोहियावादी समाजवाद का जो बोलबाला था, वह भी दम तोड़कर जातिवादी, परिवारवादी समूह में बदल चुका है. इस बीच अम्बेडकरकरवादी कार्ड चला गया, लेकिन पूंजीवादी खेमे में अम्बेडकरवाद का गढ़ ध्वस्त हो जाने के बावजूद कई संशोधनवादी और (कुछेक क्रांतिकारी ग्रुप भी) उसका जाप करने में मशगूल हैं!
इस पूरी बहस के दौरान संशोधनवादियों (पूंजीवादी वामपंथियों) की चुप्पी का भी एक खास मतलब है. याद कीजिये, नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह और नक्सलवादी उभार के दौर में किस तरह पूंजीवादी विचारकों और संशोधनवादी बुद्धिजीवियों ने मिलजुलकर इस क्रांति की भ्रूण हत्या का प्रयास किया था. उन्हें अराजकतावादी और चीन का एजेंट कहकर किस तरह बदनाम किया था! जिन राज्यों में उनकी सरकार थी वहां तो उन्होंने दमन करने में बढ़चढ़कर हिस्सा भी लिया था.
आज अगर सिर्फ पूंजीवादी बुद्धिजीवी मुखर हैं और संशोनवादी मौन हैं, तो इसके दो मतलब है. पहला यह कि यह संकट संशोधनवादी खेमे का संकट है और दूसरा यह कि आज पूंजीपति वर्ग को इन महानुभावों की जरूरत काफी कम हो गयी है या खत्म हो गयी है.
इस बदलाव से क्रांतिकारी बुद्धिजीवियों को यह निष्कर्ष निकालना चाहिए कि यह दौर संशोधनवादी खेमे के विघटन का दौर है और इस पर रोने-धोने के बजाय हमें मार्क्सवाद के विकास पथ की खोज पूरी तन्मयता से करनी चाहिए. इसलिए इस बहस में हमारे हस्तक्षेप का मकसद अपने साथियों और मेहनतकश जनता के अग्रणी हिस्से को सही तथ्यों से अवगत कराते हुए उनका हौसला बुलंद रखना है. दरअसल, पूरी दुनिया में समाजवाद और मार्क्सवाद पर सबसे गहरा संकट 1956 में आया था जब ख्रुश्चोव के नेतृत्व में इसके खिलाफ भितरघात की शुरुआत हुई थी और विश्व क्रांति का आधार क्षेत्र सोवियत संघ प्रतिक्रांति का केंद्र बन गया था. उस समय हमारे देश में कम्युनिस्ट के नाम पर ये संशोधनवादी फलते-फूलते रहे. इसके दो कारण थे: दुनिया के स्तर पर सोवियत सामाजिक साम्राज्यवाद की मौजूदगी और देश के स्तर पर इंदिरा राज में भारतीय पूँजीवाद और उसकी राजसत्ता का सोवियत खेमे में शामिल रहना.
आज इनके विघटन की स्थिति इसलिए पैदा हो गयी है कि इनके उपर्युक्त दोनों आधार नष्ट हो गये हैं. सोवियत साम्राज्यवाद विखंडित हो गया है और भारत का पूँजीपति वर्ग अब मजबूती के साथ अमेरिकी साम्राज्यवाद के साथ है जिसे पूँजीवादी वामपंथ की जरूरत महसूस नहीं हो रही है. देंग के नेतृत्व में चीन के पतन के बाद इन्हें एक अंतरराष्ट्रीय आधार तो मिला लेकिन वह न तो ख्रुश्चोवी सोवियत संघ की तरह मजबूत है और न उसकी उतनी प्रतिष्ठा है. एक नजरिए से देखें तो, इस दौर ने मार्क्सवाद के विज्ञान को समृद्ध बना दिया है. उसने हमें समझा दिया कि समाजवाद का निर्माण सर्वहारा अधीनयकत्व के आधार पर ही हो सकता है. याद करें, लेनिन ने राजकीय पूँजीवाद का सहारा लेकर पिछड़े रूस में समाजवाद की नींव रखी थी जिसे स्तालिन ने आगे बढ़ाया और मजबूत बनाया, क्योंकि वे दोनों सर्वहारा अधिनायकत्व का प्रयोग कर रहे थे.
ठीक इसके विपरीत ख्रुश्चोव ने सोवियत संघ में सर्वहारा अधिनायकत्व का गला घोंट दिया और समाजवाद के दौर में मौजूद पूंजीवादी अवशेष का सहारा लेकर अपना काम शुरू किया और पूँजीवाद के तत्व उसमें फलने फूलने लगे. 1991 आते-आते वहां क्लासीकीय पूँजीवाद पूरी तरह परिपक्व हो गया था और उसने अपनी जरूरत के अनुसार पूंजीवादी सत्ता का निर्माण किया जो पुतिन के नेतृत्व में साम्राज्यवादी तानाशाही के रूप में काम कर रही है. मतलब यह कि सर्वहारा अधिनायकत्व के अधीन राजकीय पूँजीवाद, समाजवाद की दिशा में जा सकता है, लेकिन पूंजीवादी अधिनायकत्व में वह पूँजीवाद का आधार मजबूत करता है. हमें आश्चर्य तब होता है जब कविता कृष्णन और उनके संशोधनवादी पूर्वज कहीं भी ख्रुश्चोव, ब्रेज़नेव, आन्द्रोपोव और गोर्बाचोव जैसे सोवियत गद्दारों के नाम नहीं लेते, न निंदा में और न प्रशंसा में. लेकिन मार्क्स-एंगेल्स, लेनिन और स्तालिन की निंदा किए बिना उनका काम ही नहीं चलता. इसका सबसे बड़ा कारण है कि उनका आका पूँजीपति वर्ग यह जनता है कि इतिहास के उपर्युक्त कूड़े- कचरों का नाम क्यों लिया जाय,जब वे बेकार हो चुके है!
दूसरी तरफ वह यह भी जानता है जब तक मजदूर वर्ग का अस्तित्व है तबतक मार्क्स से लेकर स्तालिन और माओ तक के विचारकों और नेताओं का नाम अमर रहने वाला है, इसलिए मार्क्सवादी खेमे के भगोड़ों से उनके नाम पर कालिख पुतवाओ ताकि वर्ग चेतनाविहीन मजदूरों को दुविधा में डाला जा सके. कविता वही भूमिका निभा रही हैं. इस बहस में हम कविता और अन्य संशोधनवादियों द्वारा उठाये गये सैद्धांतिक और राजनीतिक मुद्दों पर चर्चा करेंगे.
स्तालिन के बिना समाजवाद की कल्पना नहीं की जा सकती - 2
(सर्वहारा अधिनायकत्व के बारे में)
- डॉ रामकवींद्र
कार्ल मार्क्स के जमाने में कम्युनिज्म का भूत जितना यूरोप को सता रहा था, आज उनका विख्यात सूत्र 'सर्वहारा का अधिनायकत्व' उतना ही (या उससे भी ज्यादा) पूरी दुनिया के पूंजीपतियों को सता रहा है. इसका कारण बहुत स्पष्ट है. मार्क्स के समय में यह सूत्र सिर्फ विचार जगत में था, आज वह व्यवहार में उतर चुका है और इस खेमे के भितरघातियों की साजिश का शिकार भी हो चुका है. फिर भी पूंजीपति वर्ग लेनिन, स्तालिन और माओ के सर्वहारा अधिनायकत्व के प्रयोगों को यादकर कांप उठता है.
मार्क्स के अभिन्न मित्र और अनन्य सहयोगी एंगेल्स की मृत्यु के तुरंत बाद ही इस अवधारणा पर बहस छिड़ गयी थी. अपने समय के जाने माने मार्क्सवादी एडुअर्ड बर्नस्टीन ने कह दिया था कि सर्वहारा अधिनायकत्व मार्क्स का सुविचारित सूत्र नहीं है, इसका उपयोग उन्होंने आकस्मिक ढंग से कर दिया था. यह मार्क्सवाद के साथ गद्दारी थी. उस समय के मार्क्सवादियों ने उनके खिलाफ व्यापक मोर्चा खोल दिया था. लेनिन ने तो उन्हें दुनिया का पहला अवसरवादी होने का ख़िताब तक दे दिया था.
कविता कृष्णन ने यू ट्यूब चैनल पर अशोक कुमार पाण्डेय के साथ कुछ वैसे ही अंदाज में बात की है जिस अंदाज में बर्नस्टीन ने की थी. उनके अनुसार मार्क्स ने पूंजीवादी जनतंत्र को पूँजीपति वर्ग की तानाशाही के रूप में चित्रित करते हुए सर्वहारा जनतंत्र को भी सर्वहारा की तानाशाही कह दिया था. इस प्रकार उनकी नजर में यह महज शब्दावली का खेल है और अलग से इसका कोई वैचारिक और राजनीतिक महत्व नहीं है. इससे एक कदम आगे बढ़कर वे यह भी कह देती हैं कि सर्वहारा जनतंत्र को पूंजीवादी जनतंत्र से ज्यादा जनतांत्रिक होना चाहिए. उनकी यह बात ठीक है, लेकिन यह भी जानना जरूरी है कि आखिर वह स्थिति कब आएगी और कैसे आएगी.
वे इतना ही पर नहीं रुकतीं. अपने पूर्वज से एक कदम आगे बढ़कर वे इतिहास के सर्वहारा अधिनायकत्व के सफल निष्पादकों पर काफी गंदे आरोप लगाती हैं. दरअसल बर्नस्टीन के पास व्यवहार के वे अनुभव नहीं थे और पूंजीवादी विचारकों के झूठ के उतने बड़े भंडार भी नहीं था जो कविता के पास है. लेकिन कविता के साथ एक संकट है. वे स्तालिन और माओ राज का सिर्फ एक पक्ष (नकारात्मक) देखती हैं. आरोपों की पूरी फेहरिस्त में स्तालिन का एक भी काम वे स्वीकार नहीं करतीं जिसे इतिहास में अच्छे काम के रूप में दर्ज किया जाना चाहिए. यह एकांगीपन नहीं तो क्या है!
कितना आश्चर्य है कि स्तालिन के समकालीन नेता, ब्रिटिश प्रधानमंत्री व कट्टर कम्युनिस्ट विरोधी चर्चिल की नजर में भी स्तालिन की कई महान उपलब्धियां जगह बना चुकी थीं. वे यह स्वीकार करते हैं कि स्तालिन ने अपने छोटे शासन काल में रूस को पिछड़े पूंजीवादी देश से आधुनिक देश में बदल डाला. लेकिन कविता को वह सब नहीं दिखाई पड़ा. जिस एकांगीपन की बीमारी से वे खुद पीड़ित हैं, उसी का आरोप कम्युनिस्टों पर लगाती हैं. उनकी नजर में सिर्फ वही सब आया जो पूंजीवादी विचारकों ने लिखा हैं, जिन्हें मार्क्स (पूंजीपतियों के) कलम के कुली घोषित कर चुके हैं.
संतोष की बात है कि मनीष आजाद ने सोशल मीडिया में जारी एक लेख में पूंजीवादी विद्वानों के इस झूठ का पर्दाफास कर दिया है जिसके आधार पर कविता खड़ी हैं. मनीष के विश्लेषण के कुछ पहलुओं पर असहमति के बावजूद मेरी नजर में वह लेख तथ्यपरक और प्रशंसनीय है.
अब हमलोग यह देखें कि मार्क्स-एंगेल्स सर्वहारा अधिनायकत्व के बारे में क्या सोचते थे. इसके लिए हम 'कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणा पत्र' से उनके शब्दों का उद्धरण देख लेते हैं : - 'सर्वहारा अपनी राजनीतिक सत्ता का प्रयोग बुर्जुआ वर्ग से धीरे धीरे करके सारी पूँजी छीनने, उत्पादन के सारे उपकरणों को राज्य के, अर्थात शासक वर्ग के रूप में संगठित सर्वहारा के हाथों में केंद्रिकृत करने तथा उत्पादक शक्तियों की समग्रता में यथाशीघ्र वृद्धि करने के लिए करेगा.'
गौर कीजिए, क्या लेनिन, स्तालिन और माओ ने ठीक यही काम नहीं किया था! सोवियत संघ में धीरे धीरे उद्योग और कृषि के उत्पादन के साधनों का राष्ट्रीयकरण वही सब तो था जो मार्क्स एंगेल्स ने उपर्युक्त पंक्तियों में लिखा है.
आगे देखें, इस काम के तरीकों पर मार्क्स-एंगेल्स का क्या कहना था : - 'निस्संदेह, आरम्भ में यह काम सांपतिक अधिकारों पर, और बुर्जुआ उत्पादन की अवस्थाओं पर निरंकुश हमलों के बिना नहीं हो सकता; अतः, ऐसे हमलों के बिना नहीं हो सकता, जो आर्थिक दृष्टि से अव्यावहारिक प्रतीत होते हैं, पर जो विकासक्रम में अपनी सीमा को लांघ जाते हैं, पुरानी सामाजिक अवस्था (यानी पूंजीवादी अवस्था) के और अधिक अतिक्रमण को अनिवार्य बना देते हैं और उत्पादन प्रणाली में पूर्णतया क्रांति लाने के साधन के रूप में अनिवार्य हैं.'
फिर वही सवाल. सर्वहारा अधिनायकत्व के निष्पादकों ने 'पूंजीवादी उत्पादन की अवस्थाओं पर निरंकुश हमला' के अतिरिक्त और क्या किया था. यह सब देख और जानकर हमारे पास कविता जी की बात मानने का कोई कारण नहीं बचता कि मार्क्स ने 'सर्वहारा अधिनायकत्व' का प्रयोग साहित्यिक शब्दावली के रूप में कर दिया था. निश्चय ही उनके पास एक योजना थी और उसके निष्पादन का तरीका था.
अब मार्क्स-एंगेल्स की बात का अंतिम भाग जिसपर कविता एकतरफा जोर देती हैं. इस विचार में वे कम्युनिस्ट पार्टियों में बैठे अनेक निम्नपूंजीवादी लोगों का प्रतिनिधित्व करती हैं. वह विचार है कि सर्वहारा अधिनायकत्व तथाकथित पूंजीवादी जनवाद से भी ज्यादा जनवादी हो जाता है. अब तक जिन देशों में क्रांति हुई है उनमें से कोई भी मार्क्स और एंगेल्स द्वारा बतायी गयी दूसरी मंजिल को हासिल नहीं कर सका है. साथ ही यह भी सच है कि निरंकुश सत्ता की पहली मंजिल के कार्यक्रमों को ठीक से लागू किए बिना दूसरी मंजिल में प्रवेश असम्भव है. कविता के पास समाजविज्ञान के इस सच को देखने और समझने का धैर्य और साहस नहीं है, तो इसमें मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन, स्तालिन और माओ की क्या गलती!
स्तालिन को खारिज कर समाजवाद की कल्पना नहीं की जा सकती -3
(सर्वहारा अधिनायकत्व के बारे में)
- डॉ रामकवींद्र
इस श्रृंखला की पिछली कड़ी में हमलोगों ने सर्वहारा की तानाशाही के बारे में कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणा पत्र में मार्क्स और एंगेल्स के विचारों को देखा था. उसमें पूँजीवाद से साम्यवाद तक की यात्रा में मजदूर वर्ग की सत्ता की दो मंजिलों की चर्चा की गयी थी.
पहली मंजिल में उसे पूंजीपति वर्ग और पूंजीवादी उत्पादन की सामाजिक व आर्थिक अवस्था पर निरंकुश हमला करना पड़ता है और दूसरी में यह तानाशाही पूंजीवादी जनतंत्र से भी ज्यादा जनतांत्रिक हो जाती है. अब सवाल है कि समाज की यह प्रगति कैसे होती है और उस बदलाव की भौतिक परिस्थितियां क्या होती हैं?
मार्क्स और एंगेल्स समाजवाद के निर्माण और विकास के लिए सर्वहारा वर्ग की सत्ता को अनिवार्य अंग मानते थे. जर्मन मजदूर पार्टी के कार्यक्रम की आलोचना (गोथा कार्यक्रम की आलोचना के नाम से प्रसिद्ध) में मार्क्स ने सर्वहारा अधिनायकत्व की बिल्कुल स्पष्ट व्याख्या की है. उनका मानना है कि :
'पुजीवाद और कम्युनिस्ट समाज के बीच एक दूसरे में क्रान्तिकारी रूपांतरण का काल है. इसका समवर्ती एक राजनीतिक संक्रमण काल भी है, जिसमें राज्य सर्वहारा के क्रांतिकारी अधिनायकत्व के सिवा और कुछ नहीं हो सकता.'
इस उद्धरण से साफ है कि जिसे हम समाजवाद कहते हैं वह पूँजीवाद और साम्यवाद के बीच बदलाव की अवधि है. मार्क्स-एंगेल्स की संकलित रचनाओं के तीसरे खंड के पहले भाग में प्रकाशित लेख की उपर्युक्त पंक्तियों में 'सर्वहारा के क्रान्तिकारी अधिनायकत्व' को मोटे अक्षरों में दिया गया है. इससे पता चलता अपनी इस अवधारणा पर वे लोग कितना जोर देते थे.
दूसरी बात यह भी गौर करने लायक होगी कि विभिन्न किस्म के अवसरवादियों के खिलाफ वैचारिक संघर्ष में लेनिन से लेकर आज तक यह उक्ति सबसे अधिक बार उपयोग में लायी गयी होगी. 1848 में प्रकशित घोषणा पत्र से लेकर इस लेख (1875) तक की अवधि तक इस अवधारणा पर मार्क्स-एंगेल्स के निरंतर जोर को देखते हुआ क्या कहा जा सकता है कि उन्होंने इसका उपयोग साहित्यिक शब्दावली (rhetoric) के रूप में कर दिया था. निश्चय ही ऐसा नहीं कहा जा सकता. यह अवधारणा समाज विज्ञान में उनकी अनुपम खोजों में एक थी, जिसपर वे कोई समझौता नहीं करते थे. जर्मन सामाजिक जनवादी पार्टी से संबंध विच्छेद उन्हें मंजूर था, लेकिन इसपर समझौता नहीं.
इससे जाहिर है कि इस गंभीर विचार की (rhetoic) शब्द जैसी व्याख्या देकर कविता या तो अपनी अज्ञानता का परिचय दे रही हैं या पूँजीवाद की चाटुकारिता के अतिरेक का. मेरी नजर में दूसरी संभावना ज्यादा है.
अब हमलोग दूसरे पक्ष पर आ जाएं. मार्क्स ने कम्युनिस्ट समाज को दो भागों में बांटा था : आरम्भिक अवस्था और उच्चतर अवस्था. वे खुलकर स्वीकार करते हैं कि पहली अवस्था में पूंजीवादी दोषों का होना अनिवार्य है. यह वह समय होता है ' जब वह पूंजीवादी समाज से दीर्घकालीन प्रसववेदना के बाद अभी अभी उत्पन्न हुआ है.' यह वह अवस्था है जिसमें सर्वहारा का अधिनायकत्व अनिवार्य है. और तब तक अनिवार्य बना रहेगा जब तक वर्ग विभेद का नाश नहीं हो जाता.
इसी क्रम में मार्क्स कम्युनिस्ट समाज की उच्चतर अवस्था की विशिष्टताओं का खुलासा करते हैं. इसकी पहली विशिष्टता है कि श्रम विभाजन का अंत हो जाता जाता है. इसका मतलब कि किसनों और मजदूरों के श्रम का अंतर मिट जाता है, शहर और देहात का अंतर मिट जाता है और शारीरिक श्रम और मानसिक श्रम का अंतर मिट जाता है.
उस समाज की दूसरी विशेषता है कि श्रम मनुष्य के जीवन का साधन मात्र नहीं रह जाता, बल्कि सर्वोपरि आवश्यकता बन जाता है. यानी वह उसके आनंद का स्रोत बन जाता है.
उस समाज की तीसरी विशिष्टता है कि उत्पादक शक्तियों के तेज विकास के फलस्वरूप सामाजिक सम्पदा के उत्पादन व वितरण की गति काफी बढ़ जाती है. यानी समाज में उत्पादन का इतना विकास हो चुका होता है कि हर व्यक्ति अपनी जरूरत के अनुसार उसका उपभोग कर सकता है.
उन तीनों शर्तों को पूरा करने के बाद ही समाज उस अवस्था में आ पायेगा जब वह 'हर किसी से उसकी क्षमतानुसार, हर किसी को उसकी आवश्यकतानुसार' का कार्यक्रम लागू कर सकेगा. इसी समाज में उस जनतंत्र को लागू किया जा सकेगा, जिसका सपना कविता जी देख रही हैं. वे न सिर्फ सपना देख रही हैं, बल्कि स्तालिन और माओ की लानत मलामत भी कर रही हैं कि अलादीन के चिराग की तरह वैसा लोकतंत्र उन लोगों ने सोवियत संघ और चीन में क्यों नहीं लागू किया. लेकिन वे यह नहीं समझ रही हैं कि इस अवस्था को हासिल करने के लिए समाज को लम्बे समय तक संघर्ष की पीड़ा से गुजरना पड़ेगा. ठीक वैसे ही जैसे किसी महिला को मां बनने के लिए प्रसवपीड़ा से गुजरना ही पड़ता है.
यही है सर्वहारा क्रांति के बाद कम्युनिज्म की अवस्था तक पहुंचने का मार्क्सवादी विकास मार्ग. इसी अवस्था में मार्क्स का सुप्रसिद्ध सूत्र 'राज्य का विलोप' भी सम्भव हो सकता है. लेकिन मार्क्स-एंगेल्स ने कहीं यह नहीं बताया कि यह संक्रमण काल कितना लम्बा होगा! (क्रमशः)
क्या स्तालिन और हिटलर को एक ही तराजू पर तौला जा सकता है?
- डॉ रामकवींद्र
भाकपा माले (लिबरेशन) से संबंध विच्छेद के बाद कविता कृष्णन का एक वीडियो जारी हुआ है जिसमें फासिज्म और सर्वसत्तावाद से लड़ने के बहाने उन्होंने कम्युनिस्ट आंदोलन की महान परंपराओं को खारिज किया है. उनके आरोप और विश्लेषण के बरक्स इन प्रश्नों पर विचार किया जाना चाहिए :
- क्या स्तालिन और हिटलर को एक ही तराजू पर तौला जा सकता है?
- क्या स्तालिन युग की नीतियाँ और ख्रुश्चोव, ब्रेज़नेव से लेकर गोर्बाचोव और सोवियत संघ के विघटन के बाद येलत्सिन और पुतिन की नीतियाँ समान हैं क्योंकि पूंजीवादी विचारकों द्वारा इनमें सब पर तानाशाह या सर्वसत्तावादी होने के आरोप लगते हैं?
- अगर कम्युनिस्ट पार्टियां सिर्फ इसलिए नहीं फलफूल रही हैं कि वे इतिहास के "बोझ" से मुक्त नहीं हो पा रही हैं, तो भाकपा, माकपा जैसी पार्टियों को क्या कहा जाये, वे तो स्तालिन के "बोझ" से खुद को मुक्त कर चुकी हैं, फिर भी संकुचन का शिकार हैं. ऐसा क्यों?
- क्या वर्ग विभाजन और वर्गीय तानाशाही की अवधारणा को छोड़ दिया जाय? और क्या ऐसा करके मार्क्सवादी कहलाने के अधिकारी हम रह जायेंगे? आदि आदि. ऐसे अनेक प्रश्न खड़े हो सकते हैं.
आज वामपंथ के संकुचन के पीछे मुख्य बात यह नहीं है कि वामपंथी इतिहास का "बोझ" ढोने के कारण बर्बादी की कगार पर पहुँच गये हैं. मुख्य पहलू यह है कि बहुतेरे वामपंथी मार्क्सवाद लेनिनवाद की महान परंपराओं को अपनाने में शरमाने लगे हैं और उनकी जगह पर मार्क्सवाद लेनिनवाद की आड़ में क्षुद्र पूंजीवादी मूल्यों के वाहक बन गये हैं. अगर वे पुतिन और जी शिनपिंग के पीछे खड़े हैं तो वे साम्राज्यवादी सर्वसत्तावादी शक्तियों के साथ हैं. संकट का मूल कारण यहाँ है जिसे कविता कृष्णन नहीं समझ पा रही हैं और सर्वसत्तावाद से लड़ने के नाम पर सर्वहारा अधिनायकत्व (पूंजीपतियों और उनके एजेंटों पर मजदूर वर्ग के नेतृत्व में मेहनतकश जनता की तानाशाही) को खारिज कर उदार पूंजीवादी जनवाद (वस्तुतः मजदूरों पर पूँजी की तानाशाही) का समर्थन करने लगी हैं.
स्तालिन के भूत से कौन भयभीत है -1
- डॉ रामकवींद्र
भाकपा माले (लिबरेशन) से कविता कृष्णन के त्यागपत्र के बाद उनके द्वारा उठाये गये मुद्दों पर अच्छी खासी बहस छिड़ गयी है. आरोप-प्रत्यारोप से लेकर समीक्षा तक बहस तीन दिशाओं में केंद्रित है: कविता कृष्णन के वक्तव्य की अंतर्वस्तु और त्यागपत्र, उसपर लिबरेशन ग्रुप के महासचिव की नरम प्रतिक्रिया और इस विवाद का ऐतिहासिक और वैचारिक पक्ष. बेहतर होगा कि बात अंतिम बिंदु से शुरू की जाय और इस बात की जाँच पड़ताल की जाय कि क्या कविता कृष्णन के आरोप सही हैं! क्या सचमुच स्तालिनवादी तानाशाही के अनुसरण के कारण कम्युनिस्ट पार्टियां आगे नहीं बढ़ पा रही हैं या बर्बादी के कगार पर पहुँच गयी हैं!
हम अपनी बात विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन से शुरू करें. नौसिखुओं को छोड़कर आंदोलन का हर व्यक्ति सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी की बीसवीं कांग्रेस (1956) में ख्रुश्चोव की गोपनीय रिपोर्ट से अवगत है. उसने इस रिपोर्ट को पढ़ा हो या न पढ़ा हो, लेकिन इतना तो सुन रखा है कि यह रिपोर्ट स्तालिन के खिलाफ थी. मैं समझता हूँ कि कविता जी पिछले तीन दशकों में भाकपा माले, लिबरेशन के बड़े नेताओं में शामिल रही हैं और इतिहास की इन सारी बातों से अवगत हैं. फिर भी, पाठकों की जानकारी के लिए मैं इन बातों को दोहराना जरूरी समझ रहा हूँ ताकि यह समझा जा सके कि भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन में स्तालिन क़ी नीतियों का अनुसरण सही ढंग से हुआ या नहीं हुआ. भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन पर चर्चा के पहले यह देखा जाय कि ख्रुश्चोव की गोपनीय रिपोर्ट में स्तालिन की कैसी छवि पेश की गयी थी. यह इसलिए जरूरी है कि 1960 का दशक आते आते यह रिपोर्ट विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन में बहस और विभाजन का कारण बन गयी थी, जिसके प्रभाव में भारत का कम्युनिस्ट आंदोलन भी बिखर गया था.
वैसे तो ख्रुश्चोव की रिपोर्ट बहुत लम्बी है, लेकिन इसमें मुख्यतः स्तालिन पर तीन-चार आरोप लगाए गये थे. वे आरोप थे : स्तालिन निरंकुश थे, अत्याचारी थे, उन्होंने पार्टी कामरेड सहित अनेक निर्दोषों को मौत के घाट उतार दिया था, वे सामूहिक नेतृत्व में भरोसा नहीं रखते थे और व्यक्ति पूजा को बढ़ावा देते थे, और उन्होंने सत्ता का दुरूपयोग किया जिससे पार्टी को गंभीर क्षति हुई. इन आरोपों के पक्ष में कई झूठे बकवास गढ़ दिये गये और मार्क्स-एंगेल्स और लेनिन के उद्धरण संदर्भ से काटकर गलत ढंग से पेश किये गये. इस विषय पर विस्तृत खुलासा बनबिहारी चक्रवर्ती ने अपनी पुस्तक 'स्टालिन क्वेश्चन' में किया है. मैं समझता हूँ स्तालिन पर इससे ज्यादा गंभीर आरोप कविता कृष्णन का नहीं होगा. पूंजीपति वर्ग के प्रतिनिधियों के सारे आरोप भी इसी दायरे में रहते हैं, सिर्फ कथा कहानी के तेवर बदल जाते हैं. तब इन आरोपों को नये ढंग से लाने की जरूरत क्यों पड़ गयी. इस सवाल पर चर्चा आगे.
ख्रुश्चोव के आरोप और इतिहास से स्तालिन को खारिज करने की कोशिश सिर्फ सोवियत संघ की घटना नहीं रह गयी थी, बल्कि वह विश्वव्यापी रूप धारण कर चुकी थी. कहीं पूरी तरह तो कहीं आधे अधूरे ढंग से. इसके लिए ख्रुश्चोव और उसकी टीम ने साम, दाम, दंड और भेद के सारे हथकंडे अपनाये. बाद में 1960 के दशक में अलबानिया और चीन की पार्टियों ने ख्रुश्चोव का विरोध तो किया, लेकिन वह नाकाफी साबित हुआ. इसका सबसे बड़ा कारण था कि स्तालिन के मूल्यांकन के संबंध में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी और माओ के विचार बदल गये थे. ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं जहाँ पहले माओ ने स्तालिन का बिना शर्त, पूरा समर्थन किया था, उन्हें चीनी जनता का सच्चा मित्र और शुभचिंतक बताया था, लेकिन 1956 के बाद से उनके सुर बदल गये थे. उन्होंने ख्रुश्चोव की तरह स्तालिन को अपराधी तो नहीं घोषित किया, उस तलवार को फेंक तो नहीं दिया, लेकिन मार्क्स, एंगेल्स और लेनिन की श्रेणी में भी नहीं रखा. वे यह मानने लगे कि स्तालिन के गलत पक्ष के खिलाफ संघर्ष करते हुए सही पक्ष का अनुसरण किया जाना चाहिए.
इस अंतरराष्ट्रीय विवाद के प्रभाव में भारत में सोवियत पंथी कम्युनिस्ट खेमा स्तालिन निंदक बन गया. वहीं मार्क्सवाद- लेनिनवाद-माओ विचारधारा का अनुसरण करने वाली भाकपा माले ने माओ की नीतियों का अनुसरण किया और माओ विचारधारा को ही आज के नये युग का मार्क्सवाद- लेनिनवाद घोषित कर दिया. इस स्थिति में वे स्तालिन का मौखिक समर्थन तो करते थे, लेकिन व्यवहार में उसे नहीं उतार पाते थे. बाद के दिनों में इस पार्टी में आए भटकाव और विखराव के बाद तो कई ग्रुपों की स्थिति और बदतर हो गयी. वहां इन बिंदुओं पर बहस भी तब छिड़ती है जब कभी अपूर्वानंद, कन्हैया कुमार, कविता कृष्णन जैसे सामाजिक जनवादी या कोई पूंजीवादी बुद्धिजीवी स्तालिन के निंदा अभियान में कूद पड़ते हैं. संक्षेप में इतना कहना बेहतर होगा कि कम्युनिस्ट आंदोलन की बर्बादी स्तालिन के "भूत" के कारण नहीं हुई है क्योंकि उसे तो इन पार्टियों ने कब का उतार फेंका है या उसका उपयोग सिर्फ बातों तक सीमित रखा है. यह बर्बादी मार्क्सवाद के खोल में पूँजीवादी और निम्नपूंजीवादी हितों की सेवा के कारण हुई है.
स्तालिन के भूत से कौन भयभीत है -2
- डॉ रामकवींद्र
कविता कृष्णन भाकपा माले (लिबरेशन) में पिछले तीस सालों से सक्रिय रही हैं. उन्हें विस्तार से बताना चाहिए था कि उनकी पार्टी के कितने निर्णय स्तालिन कीनीतियों को ध्यान में रखकर लिए गये और किन निर्णयों के परिणाम पार्टी के लिए विनाशकारी साबित हुए. लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. हो सकता है, पार्टी के भीतर उन्होंने बहस चलायी हो, जिसकी जानकारी बाहर के लोगों को नहीं हुई. फिलहाल, उन्होंने यूक्रेन पर अपने विचारों का जो विस्फोट किया, वहीं से हमलोग देख व समझ रहे हैं और अपनी प्रतिक्रिया भी दे रहे हैं. जगजाहिर है कि भारत में 'वसंत के वज्रनाद' के गर्भ से निकली पार्टी भाकपा माले कई कारणों से टुकड़ों में बंट गयी है, लेकिन कविता जी की पुरानी पार्टी सिर्फ अपने ग्रुप को ही चारु मजूमदार की राजनीति का वारिस मानती और बाकी अन्य ग्रुपों को अराजकतावादी समूह के रूप में चिह्नित करती रही है.
तथ्यों पर गौर करें तो उनकी पूर्व पार्टी चारु मजूमदार की नीतियों को विनोद मिश्र के जमाने से ही छोड़ चुकी है और दीपांकर योग्य शिष्य की तरह श्री मिश्र की नीतियों को आगे बढ़ा रहे हैं. यहाँ बता देना उचित होगा कि 1969-70 में स्थापित माले पार्टी चीन को विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन का आधारक्षेत्र और माओ को अंतरराष्ट्रीय नेता व मार्गदर्शक मानती थी और सांस्कृतिक क्रांति को सही मानते हुए देंग शियाओ-पिंग को पूँजीवाद का रही मानती थी. माओ की मृत्यु और देंग के सत्तारोहण के बाद विनोद मिश्र की नजर में देंग समाजवादी बन गये. लेकिन इसकी कोई व्याख्या नहीं दी गयी कि इस यू टर्न के वैचारिक व राजनीतिक कारण क्या थे. लेनिन और स्तालिन की नीतियों के अनुसार यह अवसरवाद था. स्तालिन के बाद की अवधि का सबसे बड़ा संकट था कि कम्युनिस्ट आंदोलन का कोई अंतरराष्ट्रीय केंद्र नहीं था, जहाँ दुनियाभर की विभिन्न पार्टियों के बीच विचार विमर्श होता, जबकि लेनिन और स्तालिन के कार्यकाल में अंतरराष्ट्रीय केंद्र हमेशा मौजूद रहा है. इस स्थिति ने सर्वहारा अंतरराष्ट्रीयतावाद की कमर तोड़ दी थी.
'महान बहस' के बाद माओ के नेतृत्व में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने सोवियत संघ को संशोधनवादी और बाद में सामाजिक साम्राज्यवादी कहते हुए उसे दुनिया की जनता का सबसे खतरनाक दुश्मन घोषित किया था. पार्टी के तत्कालीन महासचिव चारु मजूमदार के नेतृत्व में भाकपा माले ने सर्वहारा अंतरराष्ट्रीयता के तहत चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की इस नीति को भारत में लागू किया. लेकिन विनोद मिश्र ने इस सूत्र को बदलते हुए सोवियत संघ को विकृत समाजवादी देश घोषित किया. इस बदलाव के कारण वह दुनिया की जनता का दुश्मन भी नहीं रह गया, सबसे खूंखार होना तो दूर की बात है. कहाँ हुआ माओ की नीति का अनुसरण!
चारु मजूमदार के नेतृत्व में माले ने भाकपा और माकपा को संशोधनवादी यानी वामपंथी पूंजीवादी पार्टी घोषित किया था, लेकिन विनोद मिश्र ने इन पार्टियों के साथ कामरेडाना संबंध कायम कर लिया. इतना ही नहीं 1980 के दशक से उनकी पार्टी भाकपा, माकपा की राह पर चलते हुए संसदवादी राजनीति के दलदल में भी डूबने उतराने लगी. पहली बार आईपीएफ के बैनर में और दूसरी बार से पार्टी बैनर में. चुनाव में उनकी भागीदारी लेनिन और स्तालिन के रास्ते से नहीं हो रही थी, उसके लिए ख्रुश्चोवी मार्ग चुन लिया गया था. पहले तरीके में संसद और सड़क की लड़ाई में सड़क की लड़ाई प्राथमिक मानी जाती है और दूसरे में संसद की लड़ाई प्राथमिक बन जाती है. इसलिए भाकपा और माकपा अगर बर्बाद हुई हैं तो इसका कारण ख्रुश्चोवी पथ का अनुसरण था, न कि स्तालिन के पथ का. यह माले लिबरेशन के पतन का पहला चरण था.
इस चरण में पूंजीवादी -निम्नपूंजीवादी वामपंथी पार्टी के रूप में इनका जनाधार बढ़ा, बिहार विस में कुछ सीटें जीतने लगे. लेकिन तुरंत उसमें ठहराव के लक्षण दिखने लगे और जॉर्ज फरनान्डिस और नीतीश की पार्टी के साथ तालमेल का खेल शुरू हो गया. लेकिन वह तालमेल बेमेल खिचड़ी साबित हुआ और जनता की नजर में भी इनकी पूर्व अर्जित क्रांतिकारी प्रतिष्ठा मिट्टी में मिल गयी. फिलहाल एक दर्जन विधायकों के बल पर पूंजीवादी वामपंथ के नेता बने हुए हैं. लेकिन यह भी सच है कि अगर इनलोगों को राजद का वरदहस्त नहीं मिला होता, तो यह जीत असम्भव थी. चुनावी राजनीति का ही दबाव है कि अब माले, लिबरेशन के नेता मार्क्स और लेनिन का नाम लेने के बजाए अम्बेडकर और भगत सिंह के रास्ते मुक्ति की तलाश करने लगे हैं. क्या यही है, स्तालिन की नीति का अनुसरण?
यहाँ यह बात स्पष्ट हो जानी चाहिए कि भगत सिंह महज इनके नकाब हैं, इनके असली प्रतीक अम्बेडकर बन गये है. ठीक वैसे ही जैसे 1960 के दशक में संशोधनवादियों के प्रतीक लोहिया बन गये थे. लोहिया से अम्बेडकर तक की वैचारिक यात्रा का सामाजिक आधार बिल्कुल स्पष्ट है. तब पिछड़ी जातियों के जागरण का काल था, अब दलित जातियों के जागरण का काल है. इसलिए घोर दक्षिणपंथी भाजपाई प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सावरकर और अम्बेडकर के नाम का जाप कर रहे हैं, तो मार्क्सवादी खेमे के घोर अवसरवादी दीपांकर भट्टाचार्य अम्बेडकर और भगत सिंह के नाम का.
इस संक्षिप्त विवरण में स्तालिन का भूत किसी वामपंथी के कंधे पर नजर नहीं आता, आता भी तो ख्रुश्चोव का भूत. अब राजनीति का पासा पलटने लगा है, ख्रुश्चोवी भूत उतरने लगा है. ख्रुश्चोवपंथी अपने आका को याद करने में भी शरमाने लगे हैं, जबकि 'जो हिटलर की चाल चलेगा, वह हिटलर की मौत मरेगा' जैसे नारे लगाकर अनजाने में ही उन्हें स्तालिन का गौरवगान करना पड़ता है. दूसरी ओर दुनिया के मजदूर अपनी बर्बादी से सबक लेकर एक बार फिर स्तालिन को याद करने लगे हैं. यही कारण कि देश और दुनिया के पूंजीपतियों को स्तालिन का भूत आतंकित करने लगा है और कविता कृष्णन जैसे लोग उन्हें कोसने लगे हैं.
स्तालिन के भूत से कौन भयभीत है -3
- डॉ रामकवींद्र
कविता कृष्णन ने बीबीसी (रेडियो) से प्रसारित अपने इंटरव्यू में माकपा सदस्यों द्वारा ट्रोल किये जाने का जिक्र किया था, लेकिन यह नहीं बताया था कि आखिर इन लोगों ने उन्हें किस बात पर ट्रोल किया. स्तालिन निंदा पर माकपा कार्यकर्ताओं का गुस्सा आश्चर्य की बात लगताी है क्योंकि उस पार्टी ने अपने अस्तित्व में आने के बाद से कभी स्तालिन की नीतियों का अनुसरण किया ही नहीं.
रूस यूक्रेन युद्ध में यूक्रेन के हाल के हमलावर रुख पर कविता कृष्णन का नजरिया खुलकर सामने आया है. वे फासिस्ट रूस का हवाला देकर पूरी निर्लज्जता के साथ नाटो शक्तियों के साथ खड़ी हो जाती हैं. रूस को दुनिया भर में शांति और जनतंत्र के लिए खतरा बताकर वे अमेरिका और उसके सहयोगियों के सभी अपराधों पर पर्दा डाल देती हैं जब कि सच यह है कि सभी साम्राज्यवादी देश विश्व शांति और उत्पीड़ित देशों के जनतंत्र के जानी दुश्मन हैं और उनमें अमेरिका और नाटो के देश अव्वल हैं. जाहिर है, लिबरेशन ग्रुप में रहते हुए उन्हें नाटो भक्ति की यह छूट नहीं मिल सकती थी. मुझे लगता है, माकपा कार्यकर्ताओं के विरोध का मुख्य कारण भी यही रहा होगा.
फिर भी किसी पूंजीवादी पार्टी के नाटो भक्त की तुलना में कविता जी कम्युनिस्ट आंदोलन पर ज्यादा आक्रामक हो जाती हैं क्योंकि हर पार्टी और हर ग्रुप में उन्हें स्तालिन का भूत नजर आने लगता है. उनके इस भय के विपरीत लिबरेशन ग्रुप की तुलना में माकपा का स्तालिन विरोधी आचरण ज्यादा मुखर रहा है और उसकी बर्बादी के लिए तो स्तालिन का भूत कहीं से जिम्मेदार है ही नही, चाहे पश्चिम बंगाल का उदाहरण लें या केरल का. यहाँ हम पश्चिम बंगाल की गतिविधियों तक सीमित रहेंगे.
पश्चिम बंगाल की गठबंधन सरकार (1967) में माकपा के जाने-माने नेता ज्योति बसु गृहमंत्री और हरेकृष्ण कोनार भूमि सुधार और राजस्व मंत्री बनाये गये थे. सरकार में मंत्री बनने के पहले श्री कोनार अपनी पार्टी के किसान संगठन के बड़े नेता थे जिसका मुख्य नारा था: जमीन जोतने वालों की. उसी समय इन्हीं की पार्टी के कुछ साथियों के नेतृत्व में नक्सलबाड़ी में जमींदारों के खिलाफ किसानों का विद्रोह फूट पड़ा जिसके नेता चारु मजूमदार, कानू सान्याल, सोरेन बोस, जंगल संथाल आदि थे. इस विद्रोह को दबाने के लिए युक्त सरकार ने किसानों पर गोलियां चलवाईं और आंदोलन के नेताओं का दमन किया जबकि उस समय तक ये नेतागण माकपा के ही नेता व कार्यकर्ता थे.
उस समय के पूंजीवादी विचारकों को वह कार्रवाई भी स्तालिनवादी कार्रवाई ही लगी थी. लेकिन सच्चाई है कि यह कार्रवाई पूरी तरह स्तालिन की नीतियों के विपरीत थी. इतिहास में एक भी उदाहरण नहीं मिलेगा जहाँ लेनिन और स्तालिन की सरकार ने जमीन मांगने वाले मेहनतकश किसानों पर गोलियां चलवाई हों. इसके विपरीत बोल्शेविक क्रांति की जीत के तुरंत बाद लेनिन की सरकार ने पहला राज्यादेश जमीन पर ही जारी किया था, जिसमें जार, उसके रिश्तेदारों, बड़े जागीरदारों और गिरिजाघरों की जमीन बिना मुआब्जा जब्त कर ली गयी थी और स्थानीय किसान समितियों की सलाह से वितरण की कार्रवाई शुरू कर दी गयी थी.
नक्सलबाड़ी के किसान आंदोलन पर दमन के बाद माकपा सर्वहारा की पार्टी से पतित होकर पूंजीपति वर्ग की वामपंथी पार्टी बनने की परीक्षा में शामिल गयी थी. उसके बाद के पांच साल (1967-72) पश्चिम बंगाल में उथल पुथल के रहे. 1972 में सिद्धार्थ शंकर राय ने तो दमन के सारे रिकॉर्ड तोड़ डाले. इस बीच युक्त मोर्चा की सरकारें बनती रहीं और इंदिरा सरकार द्वारा अपदस्थ की जाती रहीं. पूंजीवादी राजनीति की इस परीक्षा में पास हो जाने के बाद 1977 में माकपा के नेतृत्व में वाममोर्चा सरकार का गठन हुआ जिसने 34 वर्षों तक शासन किया. इस अवधि में सरकार के स्थायित्व के दो प्रमुख आधार बने: ऑपरेशन बरगा और पंचायती राज. बाद में तीसरा आधार बन गया, कार्यकर्त्ता के नाम पर लम्पट तत्वों का प्रवेश और दबदबा. ऑपरेशन बरगा तो मानों उनके 1967 के पापों का प्रायश्चित जैसा था. उस समय भारतीय बड़ा पूंजीपति वर्ग अंतरराष्ट्रीय खेमेबंदी में सोवियत साम्राज्यवाद के खेमे में था और उसे ऐसे पूंजीवादी जनवादी सुधारों से कोई परहेज नहीं था.
1991 के बाद यानी सोवियत साम्राज्यवाद के विखंडन और अस्थायी तौर पर अमेरिकी दबदबा बन जाने के बाद देश का पूंजीपति वर्ग अमेरिकी साम्राज्यवाद के खेमे में आ गया. उसके बाद स्थिति बदल गयी और माकपा भी अपना रुख बदलने लगी. 2007 आते आते पश्चिम बंगाल की वाममोर्चा सरकार की किसान नीति बदल गयी. अब देशी, विदेशी पूंजीपतियों के उद्योगों के लिए ऑपरेशन बरगा के लाभार्थी किसानों से जमीन छिनी जाने लगी. इसके विरोध में सिंगूर और नंदीग्राम के किसान आंदोलन विश्वविख्यात हो गये और सरकार विकास और रोजगार सृजन के नाम पर देशी विदेशी पूंजीपतियों की वाकलत करने लगी. इस खुली किताब के बावजूद पूंजीवादी बुद्धिजीवियों ने बुद्धदेव भट्टचार्य सरकार की किसानों पर दमन की कार्रवाई को एक बार फिर स्तालिनवादी कार्रवाई घोषित कर दी. फिर हम दोहराना चाहेंगे कि इतिहास में एक भी उदाहरण नहीं मिलेगा जिसमें स्तालिन सरकार ने पूंजीपतियों के लिए किसानों की जमीन छिनी हो. हाँ, कृषि के सामूहिककरण के दौरान कुलकों की जमीन छिनी गयी है और ऐसा बार बार करना पड़ सकता है.
संक्षेप में यही है स्तालिन के भूत का वर्ग विश्लेषण जिसे पूंजीवादी और निम्नपूंजीवादी प्रभाव में चौंधियाये बुद्धिजीवी न देख पाते हैं और न समझ पाते हैं. ऐसा न करना उनके वर्ग हित में है. इस स्थिति में हमारे पास एक ही रास्ता है कि हम मार्क्स-एंगेल्स, लेनिन, स्तालिन और माओ के शानदार इतिहास को बार बार दोहरायें ताकि पूंजीवादी झूठ का पर्दाफास कर वर्ग संघर्ष का मजबूत आधार तैयार कर सकें. जीत की उम्मीद इसी वैचारिक संघर्ष से है.
स्तालिन के भूत से कौन भयभीत है - 4
- डॉ रामकवींद्र
इस परिचर्चा की अंतिम कड़ी में हम उसी विषय की चर्चा करें जिसमें कविता कृष्णन को स्तालिन का भूत दिखाई पड़ गया और वे कांप गयीं. दरअसल रूस यूक्रेन युद्ध में उनकी नजर में सिर्फ पुतिन अपराधी है, नाटो "निःस्वार्थ भाव से" यूक्रेन की आजादी की रक्षा में खड़ा है. लेकिन बात ऐसी है नहीं. साम्राज्यवाद के अप्रत्यक्ष प्रभुत्व के इस दौर में ऐसा नहीं हो सकता कि कोई देश पूरी तरह उसके प्रभाव या प्रभुत्व से मुक्त रहे. फिलहाल विश्व पूजीवाद आंतरिक क्षय की बीमारी से ग्रसित है और साम्राज्यवादियों के बीच अपने प्रभाव क्षेत्र को बचाने और बढ़ाने का संघर्ष जारी है. एक तरफ अमेरिका और यूरोप के देश हैं जिनका सैन्य गठबंधन नाटो है, दूसरी तरफ चीन और रूस का गठबंधन तैयार हो रहा है और इसका मकसद अमेरिकी व यूरोपीय प्रभुत्व को चुनौती देना है. यूक्रेन की सरकार पहले खेमे में खड़ी है और जनता उसमें पिस रही है.
1991 में सोवियत सामाजिक साम्राज्यवाद के विघटन के बाद येलत्सिन के नेतृत्व में रूस की हैसियत अमेरिकी खेमा के समय भीगी बिल्ली जैसी हो गयी थी. आज रूस को एक क्षेत्रीय साम्राज्यवादी ताकत के रूप में उसके सामने खड़ा होने लायक बनाने का श्रेय पुतिन को जाता है. उसके बाद उनकी विस्तारवादी भूख बढ़ती चली गयी. दूसरी तरफ यूक्रेनी शासक वर्ग के प्रतिनिधि दुविधा के शिकार रहे, अमेरिकी खेमा में शामिल हुआ जाय या रूस के साथ रहा जाय. यह विवाद 2014 में अत्यंत तीखा हो गया जब तत्कालीन राष्ट्रपति विक्टर याक़ूनोविच को त्यागपर देकर देश छोड़ना पड़ गया. उन्होंने यूरोप के साथ संधि के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया था.
ध्यान देने की बात है कि याक़ूनोविच 2010 का राष्ट्रपति चुनाव जीते थे और अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों ने उस चुनाव को निष्पक्ष माना था. लेकिन पश्चिमी यूरोप के खेमे में जाने से इनकार करने के कारण उन्हें जनविद्रोह का सामना करना पड़ा. रूसी शासकों की नजर में यह विद्रोह यूरोप प्रायोजित था और यहीं से उनके कान खड़े हो गये. लगभग उसी समय क्रीमिया और दोनबास्क में रूसी लोगों ने नस्लभेद का आरोप लगाकर विद्रोह कर दिया. पुतिन ने इस स्थिति का फायदा उठाकर क्रीमिया को अपने देश में मिला लिया. इस युद्ध में दोनबास्क आदि क्षेत्र का लगभग एक लाख सत्ताईस हजार वर्ग किमी रूस के कब्जे में हैं. भीषण संघर्ष जारी है.
निस्संदेह इस युद्ध की जड़ में नाटो की रूस विरोधी भूमिका है, वर्तमान राष्ट्रपति वोलोदमीर जैलेंसकी यूरोपीय संघ और नाटो में शामिल होने को उतावले हैं और रूस यूक्रेन को कम से कम तटस्थ क्षेत्र के रूप में बनाये रखना चाहता है. यह लड़ाई ऊपर से रूस और यूक्रेन के बीच प्रतीत हो रही है, परन्तु अब यह रूस और नाटो के बीच प्रतिष्ठा की लड़ाई बन गयी है. इसमें मजदूर वर्ग और जनता की जनवादी ताकतों के विरोध का होना चाहिए. इससे भिन्न कोई नजरिया अपनाकर दुनिया की जनता को किसी एक पक्ष से युद्ध में झोंक देने जैसा होगा.
ऐसी स्थिति में दुनिया के मजदूर वर्ग के सामने सबसे बेहतर विकल्प हो सकता है कि वे इन दोनों लुटेरी ताकतों का विरोध करें और अपनी वैचारिक, राजनीतिक और सांगठनिक स्थिति मजबूत करें. दुनिया के मजदूर वर्ग तथा शांति और जनवाद चाहनेवाली जनता को निम्न तीन मुद्दों पर एकजुट होकर जोरदार आवाज बुलंद करनी चाहिए :
- दुनिया भर में फैले सभी अमेरिकी सैन्य अड्डे खत्म हों,
- नाटो भंग हो और
- रूसी सेना अविलम्ब यूक्रेन छोड़े
यही स्थायी शांति और उत्पीड़ित देशों के जनवाद की रक्षा की अनिवार्य शर्तें हैं.